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________________ २७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ वराहमिहिर ने उपर्युक्त अध्याय में यह भी लिखा है आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कप्रशान्तमूर्तिश्च। दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः॥ ४५ ॥३० अनुवाद-"आर्हतों के देव की प्रतिमा के दोनों बाहु जानुपर्यन्त होने चाहिये, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित किया जाना चाहिये, मुखमुद्रा प्रशान्त हो तथा शरीर नग्न, तरुण एवं रूपवान् होना चाहिए।" वराहमिहिर ने बृहज्जातक में प्रव्रज्यायोग बतलाते हुए जिन सात प्रकार के साधुओं का निर्देश किया है, उनके नाम इस प्रकार हैं : शाक्य, आजीविक, भिक्षु, वृद्ध , चरक, निर्ग्रन्थ और वन्याशन (तापस)-"शाक्याजीविकभिक्षुवृद्धचरका निर्ग्रन्थवन्याशनाः" (१५/१)३१ इसकी टीका में भट्टोत्पल (ई० ९५०) ने 'निर्ग्रन्थ' का अर्थ 'नग्नक्षपणक' किया है-"निर्ग्रन्थो नग्नः क्षपणकः प्रावरणरहितः।"३२ . इन उल्लेखों में वराहमिहिर ने जिनेन्द्रदेव के उपासकों को नग्न, आर्हत और निर्ग्रन्थ कहा है। इससे सिद्ध है कि दिगम्बरजैन-परम्परा पाँचवी शताब्दी ई० के पूर्व विद्यमान थी और वराहमिहिर के काल में 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'नग्न' अर्थ का वाचक था। १४ उत्तरभारत में जैन नाम से दिगम्बर ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एक बात ध्यान देने योग्य है कि वराहमिहिर को श्वेताम्बरसाहित्य में नियुक्तिकार भद्रबाहु का भ्राता माना गया है,३३ किन्तु वराहमिहिर ने केवल नग्नों को ही जिनों का उपासक बतलाया है, श्वेतपटों को नहीं, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक के 'नग्नान् जिनानां विदुः' इन वचनों से ज्ञात होता है। उन्होंने पूर्वोक्त 'बृहज्जातक' (१५/१) में शाक्य, आजीविक, भिक्षु , वृद्ध, चरक, निर्ग्रन्थ और वन्याशन (तापस), इन सात प्रकार के साधुओं का उल्लेख किया है और 'लघुजातक' में इन्हीं का नामान्तर से कथन निम्नलिखित श्लोक में किया है तापस-वृद्धश्रावक-रक्तपटाजीवि-भिक्षु-चरकाणाम्। निर्ग्रन्थानां चार्कात् पराजितैः प्रच्युतिर्बलभिः॥ १२/१२॥३४ ३०. वही / पृ. ४७३। ३१. वही / पृ. ४७१। ३२. वही / पृ. ४७३। ३३. श्री देवेन्द्रमुनिशास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ. ४३७ । ३४. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहस / पूर्वपीठिका / पृ. ४७२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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