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२७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ अतः अमात्य राक्षस अपशकुन का भाव प्रकट करते हुए (आत्मगतम् , अनिमित्तं सूचयित्वा) मन में कहता है
'कथं प्रथममेव क्षपणकः?' (क्या शुरू में ही क्षपणक आ गया?)
फिर प्रकटरूप से द्वारपाल को आदेश देता है-'अबीभत्सदर्शनं कृत्वा प्रवेशय' (बीभत्सरूप को ढंककर भीतर ले जाओ)।
भाव यह है कि नग्न रहने के कारण दिगम्बरजैन मुनि का रूप जैनेतरों को बीभत्स लगता है, इसलिए अमात्य राक्षस द्वारपाल को आदेश देता है कि वह क्षपणक को वस्त्र से आच्छादित करके भीतर ले आवे। क्षपणक मंच पर प्रवेश करके निम्नलिखित गाथा पढ़ता है
सासणमलिहन्ताणं पडिवजह मोहवाहिवेजाणं।
जे मुत्तमात्तकडुअं पच्छा पत्थं उवदिसन्ति॥ ४/१८॥ अनुवाद-"अज्ञानरूपी रोग का उपचार करनेवाले अरहन्तों के उपदेश को स्वीकार करो, जो क्षण भर के लिए कडुवा, परन्तु बाद में हितकारी होता है।" वह पंचम अंक में अरहन्तों को प्रणाम करता है
अलहन्ताणं पणमामि जे दे गंभीलदाए बुद्धीए।
लोउत्तलेहिं लोए सिद्धिं मग्गेहिं गच्छन्दि॥५/२॥ अनुवाद-"मैं अरहन्तों को प्रणाम करता हूँ , जो अपनी बुद्धि (ज्ञान) की गम्भीरता के कारण अलौकिक मार्गों के द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं।"
इससे सिद्ध होता है कि चतुर्थ शताब्दी ई० में जैनेतर समाज दिगम्बरजैन मुनियों एवं उनके धर्म से सुपरिचित था और 'मुद्राराक्षस' नाटक के रचयिता विशाखदत्त स्वीकार करते थे कि ई० पू० चौथी शताब्दी में चन्द्रगुप्त और चाणक्य के समय दिगम्बरजैन मुनियों का अस्तित्व था। इस प्रकार जैनेतर भारतीय साहित्य और साहित्यकार इस बात के गवाह हैं कि दिगम्बर जैन परम्परा ई० पू० चतुर्थ शताब्दी के पहले से चली आ रही है।
वायुपुराण (५०० ई०) में नग्न, निर्ग्रन्थ
पुराणों पर महत्त्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले श्री आर० सी० हाजरा ने वायुपुराण का रचनाकाल पाँचवी शताब्दी ई० निर्धारित किया है।४ यह शैव पुराण है। इसमें २४. वही / पृ.७७।
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