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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २६९ यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते। शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः॥ ३/१८/२६॥ निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते।
स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते॥ ३/१८/२८॥ इस प्रकार दैत्यों के विपरीतमार्ग में प्रवृत्त हो जाने पर देवगण अच्छी तैयारी करके उनके पास युद्ध के लिए उपस्थित हुए और पुनः देवासुरसंग्राम हुआ, जिसमें दैत्यगण देवताओं के द्वारा मारे गये।
विष्णुपुराण के उपर्युक्त श्लोकों में 'दिगम्बर', 'मुण्ड', 'मयूरपिच्छधारी', 'दिग्वाससों का धर्म' तथा 'अनेकान्तवाद' आदि शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट है कि पुराणकार ने दिगम्बरजैन मुनि का वर्णन किया है। यद्यपि मायामोह द्वारा दैत्यों को जैनधर्म और बौद्धधर्म में दीक्षित किये जाने की कथा कल्पित है, क्योंकि बौद्धधर्म देवासुरसंग्राम के समय में था ही नहीं, तथापि यह कल्पना तीसरी-चौथी शताब्दी ई० में रचे गये विष्णुपुराण के रचयिता ने की है, इससे स्पष्ट है कि ये धर्म पुराणकार के समय से इतने अधिक प्राचीन थे कि उसने देवासुरसंग्राम के समय में भी बौद्धधर्म का अस्तित्व मान लिया। दिगम्बर जैनधर्म तो भगवान् ऋषभदेव के युग से चला आ रहा था, अतः उसमें दैत्यों के दीक्षित किये जाने की कल्पना असंगत सिद्ध नहीं होती।
११ मुद्राराक्षस नाटक (४००-५०० ई०) में क्षपणक, बीभत्सदर्शन
'मुद्राराक्षस' संस्कृत साहित्य का एक प्रसिद्ध नाटक है। इसके रचयिता विशाखदत्त हैं। विद्वानों ने इनका समय चौथी शताब्दी ई० का उत्तरार्ध और पाँचवी शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाया है।२३ नाटक में नन्दवंश का अन्त होने पर उसके 'राक्षस' नामक योग्य अमात्य को चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त का अमात्य बनाये जाने के प्रयत्न की कथा वर्णित है। इसमें चाणक्य अपने इन्दुशर्मा नामक सहपाठी को क्षपणक (दिगम्बरजैन मुनि) का वेश धारण कराकर जीवसिद्धि नाम से गुप्तचर का काम कराता है। वह अमात्य राक्षस का छद्म-मित्र बन जाता है।
चतुर्थ अंक में वह अमात्य राक्षस से मिलने जाता है। अमात्य राक्षस को द्वारपाल सूचना देता है कि ज्योतिषी क्षपणक द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। वैदिक सम्प्रदाय में साम्प्रदायिक कारण से क्षपणक (नग्न जैन मुनि) के दर्शन अशुभ माने जाते थे।
२२. विष्णुपुराण / अंश ३/ अध्याय १८/ श्लोक ३३-३४। २३. डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी : संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास/पृ. २८५ ।
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