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________________ २६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/ प्र०१ करें अर्थात् इसका आदर करें, अतः इस धर्म का अवलम्बन करने से वे 'आहत' कहलाये। इसके बाद उन्होंने अन्य दैत्यों को इस धर्म में प्रवृत्त किया, और अन्य दैत्यों ने अन्यों को। इस प्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यों ने वेदत्रयी का प्रायः त्याग कर दिया एवं प्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनचर्चितैः। मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपाकृताः॥ ३/१८/८॥ धर्मायैतदधर्माय सदेतन्न सदित्यपि। विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं सम्प्रयच्छति॥३/१८/९॥ परमार्थोऽयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम्। कार्यमेतदकार्यं च नैतदेवं स्फुटं त्विदम्॥ ३/२/१०॥ दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोऽयं बहुवाससाम्॥ ३/१८/११॥ इत्यनेकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा। तेन दर्शयता दैत्याः स्वधर्मं त्याजिता द्विज॥ ३/१८/१२॥ अर्हतैतं महाधर्म मायामोहेन ते यतः। प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन्॥ ३/१८/१३॥ इसके बाद मायामोह ने रक्तवस्त्र धारणकर अर्थात् बौद्ध बनकर अन्य असुरों को बौद्ध धर्म ग्रहण कराया पुनश्च रक्ताम्बरधृङ् मायामोहो जितेन्द्रियः। अन्यानाहासुरान् गत्वा मृद्वल्पमधुराक्षरम्॥ ३/१८/१६॥ स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थमथासुराः। तदलं पशुघातादिदुष्टधमर्निबोधत॥ ३/१८/१७॥ विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छंत। बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्॥ ३/१८/१८॥ मायामोह ने कई असुरों को चार्वाकमत में भी दीक्षित किया, जिससे वे वेदविरोधी बातें करने लगे। जैसे, यदि अनेकों यज्ञों के द्वारा देवत्व-लाभ करके इन्द्र को शमी आदि काष्ठ का ही भोजन करना पड़ता है, तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है। यदि यज्ञ में बलि किये गये पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है, तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता? Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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