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________________ अ० ४ / प्र० १ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २६७ ऋग्यजुस्सामसंज्ञेयं त्रयी एतामुज्झति यो मोहात्स नग्नः इसके बाद पराशर मुनि मैत्रेय को 'नग्न' के विषय में वह बात सुनाते हैं, जो पराशर मुनि के पितामह वशिष्ठ ने भीष्म से कही थी। वे कहते हैं कि पूर्वकाल में किसी समय सौ दिव्य वर्ष तक देवों और असुरों में युद्ध हुआ । उसमें 'ह्राद' आदि दैत्यों द्वारा देवगण पराजित हुए । तब उन्होंने भगवान् विष्णु की स्तुति की। उससे प्रसन्न होकर उन्होंने दर्शन दिये। देवों ने भगवान् से प्रार्थना की, कि 'ह्राद' प्रभृति दैत्यों ने ब्रह्माजी की आज्ञा का भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकी के यज्ञभाग का अपहरण कर लिया है। वे वर्णधर्म का पालन करनेवाले, वेदमार्गावलम्बी एवं तपोनिष्ठ हैं, अतः हमारे द्वारा उनका वध नहीं हो सकता। इसलिए भगवन् ! ऐसा कोई उपाय बतलाइये कि हम उनका वध करने में समर्थ हों । उनके ऐसा कहने पर भगवान् विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह को उत्पन्न किया और देवताओं को देकर कहा कि यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यों को मोहित कर देगा, जिससे वे वेदमार्ग से च्युत हो जावेंगे। तब तुम उनके वध में समर्थ हो जाओगे । २१ Jain Education International वर्णावृतिर्द्विज । पातकी द्विजः ॥ ३/१७/५॥ मायामोह देवों के साथ नर्मदा तट पर गया, जहाँ असुरगण तपस्या कर रहे थे। उसने दिगम्बरजैन मुनि का रूप धारण किया अर्थात् नग्नशरीर, मुण्डितकेश और हाथ में मयूरपिच्छी लिये हुए प्रकट हुआ और असुरों से बोला - " हे दैत्यपतियो ! आप लोग लौकिक फल की इच्छा से तप कर रहे हैं या पारलौकिक ?”— ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज । मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं हे दैत्यपतयो ब्रूत यदर्थं ऐहिकं वाथ पारत्र्यं तपसः वचनमब्रवीत्॥ ३/१८/२॥ तप्यते तपः । फलमिच्छथ ॥ ३/१८/३॥ असुर बोले - " हम लोग पारलौकिक फल की कामना से तप कर रहे हैं।" तब दिगम्बर जैन - मुनिवेशधारी मायामोह ने अनेक प्रकार के युक्तिमय उपदेश देकर उन्हें वैदिक मार्ग से च्युत कर दिया। वे उपदेश इस प्रकार थे - " यह धर्म का कारण है और अकारण भी है, यह सद् भी है और असद् भी, यह मुक्ति का मार्ग है और नहीं भी है, यह परमार्थ है और अपरमार्थ भी है, यह कर्त्तव्य भी है और अकर्त्तव्य भी, यह ऐसा ही है और ऐसा नहीं भी है, यह दिगम्बरों का धर्म है और यह वस्त्रधारियों का।" मायामोह ने ऐसे अनेक प्रकार के अनेकान्तवाद दर्शाये, जिससे दैत्यों ने अपना वैदिकधर्म छोड़ दिया। उसने दैत्यों से कहा कि आप लोग इस महाधर्म को 'अर्हत' २१. विष्णुपुराण / अंश ३ / अध्याय १७ / श्लोक ७-४२। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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