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२६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ मनुष्यों के तेतालीस लाख, बीस हजार (४३,२०,०००) वर्षों का होता है। इसी को ब्रह्मा का १/१४ दिन मानते हैं, क्योंकि इस प्रकार के १४ कालों का योग ब्रह्मा का एक पूरा दिन होता है। इन चौदह कालों में से प्रत्येक का अधिष्ठातृ-मनु पृथक्पृथक् है। इस प्रकार के छह काल बीत चुके हैं। इस समय हम सातवें मन्वन्तर में रह रहे हैं।८ इससे फलित होता है कि वैदिक (हिन्दू) शास्त्रों के अनुसार प्रथम स्वायंभुव-मन्वन्तर में उत्पन्न प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव आज से लगभग (४३,२०,०००४६ = २,५९,२०,०००) ढाई करोड़ वर्ष पहले हुए थे। वे वातरशन-श्रमणधर्म (दिगम्बरमुनिधर्म) के उपदेशक थे।१९ इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर जैन-परम्परा वैदिक मान्यता के अनुसार भी कम से कम ढाई करोड़ वर्ष प्राचीन है। १०.२. दिगम्बरजैनधर्म विष्णुपुराणकार के समय से अतिप्राचीन
यद्यपि विष्णुपुराणकार ने लिखा है कि ऋषभदेव नग्नावस्था में प्रव्रजित हुए थे, तथापि वे इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि ऋषभदेव ही जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे अथवा यदि वे इस तथ्य को जानते थे, तो उन्होंने जानबूझकर इसकी उपेक्षा की है और वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य भारतीय धर्मों को अधर्म सिद्ध करने के लिए जैनधर्म और बौद्धधर्म को 'मायामोह' अर्थात् अज्ञान या अविद्या-जनित दर्शाते हुए अपने अनुयायियों की रक्षा करने में असमर्थ बतलया है। विष्णुपुराण (अंश ३/अध्याय १६,१७,१८) में मुनि पराशर और शिष्य मैत्रेय के संवाद द्वारा जैनधर्म, बौद्धधर्म और चार्वाकमत की उत्पत्ति इस प्रकार बतलायी गयी है
पराशर मुनि मैत्रेय को गृहस्थ के सदाचार का उपदेश देते हुए कहते हैं कि नपुंसक, अपविद्ध (सत्पुरुषों द्वारा बहिष्कृत), चाण्डाल, श्वान, नग्न, रजस्वला स्त्री आदि की दृष्टि पड़ जाने पर देवगण तथा पितृगण श्राद्ध में अपना भाग नहीं लेते, अतः किसी घिरे हुए स्थान में श्राद्धकर्म करना चाहिए।२० इस पर मैत्रेय प्रश्न करते हैं-"भगवन्! अपविद्ध और रजस्वला आदि को तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ , किन्तु यह नहीं जानता कि 'नग्न' किसे कहते हैं? अतः आप यही बतलाइये कि नग्न कौन कहलाता है?" तब मनि पराशर उत्तर देते हैं"हे द्विज! सभी वर्गों की नग्नता को ऋक्, साम और यजुः, यह वेदत्रयी आवृत करती है, अतः जो पुरुष मोह से इसका त्याग कर देता है, वह 'नग्न' संज्ञा प्राप्त करता है"
१८. देखिए , वही। १९. देखिये, अगला शीर्षक १५ 'भागवतपुराण (६०० ई.) में वातरशन श्रमण, गगनपरिधान।' २०. विष्णुपुराण / अंश ३/अध्याय १६/ श्लोक १२-१४ ।
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