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[चालीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ हूँ। आदरणीय ब्र. बाबा शान्तिलाल जी, माननीय पं० मूलचन्द्र जी लुहाड़िया तथा पं० रतनलाल जी बैनाड़ा ने भी आचार्यश्री के सान्निध्य में कुण्डलपुर में मेरे ग्रन्थ के कुछ अंश सुने हैं और सराहना कर मेरा उत्साहवर्धन किया है, जिससे मैं इस कठिन कार्य को दत्तचित्त होकर पूर्ण करने में सफल हुआ हूँ। मैं इन सबका आभारी हूँ।
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष आदरणीय प्राचार्य पं० नरेन्द्रप्रकाश जी जैन ग्रन्थ के शीघ्र-परिसमापन हेतु मुझे निरन्तर प्रेरित करते रहे हैं। शास्त्रिपरिषद् के तत्कालीन महामन्त्री डॉ जयकुमार जी जैन ने सहयोग का वचन देकर मुझे आश्वस्त किया। मेरे निवेदन पर डॉ. जयकुमार जी ने कोलकातावासी श्री शान्तिलाल जी बाकलीवाल के द्वारा षट्खण्डागम के सभी भाग मुझे उपलब्ध कराये तथा शास्त्रिपरिषद् के तत्कालीन कार्याध्यक्ष डॉ० श्रेयांसकुमार जी जैन ने मेरे ग्रन्थलेखन के मार्ग को यथाशक्ति प्रशस्त करने का आश्वासन प्रदान कर मुझे निश्चिन्त किया। इसके लिए मैं इन मित्रों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
और प्राकृत-अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध मूर्धन्य विद्वान् प्रो० (डॉ०) राजाराम जी जैन ने तो दि० ३०/८/२००१ को आरा (बिहार) से पत्र लिखकर निम्नलिखित शब्दों के रसायन द्वारा मेरे उत्साह का अनिर्वचनीय पोषण किया है"मेरे प्रिय भाई,
उस दिन भोपाल में यदि आपसे न मिलता, तो शायद मैं बड़ी भारी भूल करता। वस्तुतः आपके यहाँ आकर ही मैंने आपकी कर्मठ, एकान्त साधना को देखा। एक बीहड़ विषय के चैलेंज को स्वीकार कर उसका सार्थक एवं सटीक उत्तर देने के लिए अपनी साधना हेतु गुफागृह में निवास करनेवाले विद्वानों की मैं पूजा करता हूँ। आपकी साधना की समग्रता तथा एकाग्रता के निर्माण में आपकी शान्तस्वभावी भामती-स्वरूपा धर्मपत्नी एवं पुत्र-पुत्रवधू और बालगोपालों का योगदान भी कम नहीं है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपका Project work तीव्रगति से अग्रसर हो रहा है। उसे शीघ्र ही लिखकर प्रकाशित कराइये। आपके लिए अपभ्रंश भाषा की प्राचीनतासम्बन्धी सामग्री शीघ्र ही प्रेषित करूँगा।
सादर नम्र
राजाराम जैन" और मान्य प्रोफेसर सा० ने उक्त सामग्री भी शीघ्र प्रेषित कर दी, जो कुन्दकुन्दसाहित्य की प्राचीनता पर प्रश्नचिह्न लगानेवालों को उत्तर देने में अत्यन्त सहायक हुई है। मैं अपने अग्रजतुल्य प्रोफेसर सा० का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ।
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