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ग्रन्थकथा
[उनतालीस] बहुत उपयोगी थे। उसके बाद मैं समय-समय पर दुर्लभ ग्रन्थों के नाम मुनिश्री के पास भेजता रहा और वे भारत का कोना-कोना छनवाकर श्वेताम्बर और बौद्ध पुस्तकालयों से दुर्लभ ग्रन्थों की छायाप्रतिलिपि करवाकर और उनकी जिल्द बँधवाकर मेरे पास भिजवाते रहे। मुनिश्री स्वयं भी मेरे ग्रन्थ के विषय से सम्बन्धित नये-नये ग्रन्थ की तलाश करते-रहते थे और उसे मँगाकर मेरे पास भिजवा देते थे। और इसे आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद का चमत्कार ही कहना चाहिए कि जिस समय, जिस अध्याय का लेखन चल रहा होता था, उस समय उसके लिए अत्यन्त आवश्यक ग्रन्थ मेरे पास अचानक पहुँच जाता था।
पूज्य मुनि श्री अभयसागर जी ने जिन दुर्लभ श्वेताम्बरग्रन्थों की छायाप्रतिलिपियाँ भगीरथ-प्रयत्न से उपलब्ध कर मेरे पास भिजवाईं, उनके नाम इस प्रकार हैं'तत्त्वनिर्णयप्रासाद', 'पट्टावलीपराग,' 'श्रमण भगवान् महावीर,' 'तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय,' 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय,' तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर सिद्धसेनगणी एवं हरिभद्रसूरि की टीकाएँ, दिगम्बरग्रन्थों में 'बृहत्कथाकोश,' 'तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज', 'दर्शनसार', 'महावीर का अचेलक धर्म', 'स्वामी समन्तभद्र' आदि की छायाप्रतिलिपियाँ तथा 'पुरातनजैनवाक्य-सूची' (मूलरूप में), प्रसिद्ध श्वेताम्बरकोश 'अभिधान राजेन्द्रकोष' के सात भाग, श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी-कृत 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' के चार भाग, मुनि श्री नगराज जी-कृत 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' के तीन खण्ड तथा 'धम्मपद-अट्ठकथा,' 'दिव्यावदान' आदि बौद्धग्रन्थ। इन ग्रन्थों से वे प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, जिनसे दिगम्बरजैन-परम्परा की प्राचीनता सिद्ध होती है तथा भगवतीआराधना, तत्त्वार्थसूत्र आदि दिगम्बरग्रन्थों का यापनीय या श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ होना असिद्ध होता है। इन प्रमाणों के अभाव में प्रस्तुत ग्रन्थ में वह प्रामाणिकता न आ पाती, जो आ गयी है। पूज्य मुनिश्री ने अमरकंटक, कुण्डलपुर, जबलपुर, विदिशा, भोपाल तथा नेमावर में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के साथ चार-चार घंटे बैठकर कई दिनों तक प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि का श्रवण और अनुमोदन किया है। अनेकत्र अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से ग्रन्थ के दोषों का निवारण और गुणों का आरोपण कर ग्रन्थ को सँवारा और निखारा है। आवरण के मुखपृष्ठ की रूपरेखा के निर्माण में भी आपने अपना बहुमूल्य योगदान किया है। इस महान् उपकार के लिए मैं पूज्य मुनि श्री अभयसागर जी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता और भक्ति की अभिव्यक्ति करता हूँ।
पूजनीया आर्यिका श्री अनन्तमति जी, आर्यिका श्री आदर्शमति जी एवं आर्यिका श्री पूर्णमति जी एवं उनके संघ की समस्त आर्यिका माताओं का भी आशीर्वाद ग्रन्थ की निर्विघ्न पूर्णता हेतु मुझे प्राप्त हुआ है। उनके प्रति सादर वन्दना निवेदित करता
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