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________________ [ अड़तीस ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ वात्सल्यमयी, मृदु प्रकृति ने मुझे बहुत सम्बल प्रदान किया है। इस हेतु मैं इन सभी गुरुओं के प्रति अपनी कृतज्ञता एवं भक्ति निवेदित करता हूँ । और पूज्य मुनि श्री अभयसागर जी के विषय में क्या कहूँ ! वे तो एक चेतनविश्वविद्यालय हैं। जैन - जैनतर धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व, शिल्प, सभी से उनका गहन परिचय है । किस विषय पर कौनसा ग्रन्थ, किसने लिखा है, कब, कौन व्यक्ति उसे उपलब्ध करा सकता है, इसकी सारी जानकारी उन्हें होती है। शोधप्रविधि के वे मर्मज्ञ हैं। स्वयं अध्ययनरत रहते हैं और दूसरों के अध्ययन और शोध का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे अनुसन्धित्सुओं को शोधविषय भी सुझाते हैं और शोधनिर्देशकों का परिचय भी देते हैं, साथ ही शोधविषय से सम्बन्धित दुर्लभ से दुर्लभ ग्रन्थ जहाँ से भी संभव होता है, मँगाकर उपलब्ध कराते हैं। वे स्वभाव से मृदु और परोपकारी हैं। मेरे कार्य में उन्होंने अनिर्वचनीय साहाय्य किया है। मुझे दिगम्बरजैन, श्वेताम्बरजैन, वैदिक और बौद्ध मतों के ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता थी, जो बाजार में अनुपलब्ध थे, वे किसी व्यक्ति के पास या पुस्तकालय में ही प्राप्त हो सकते थे, किन्तु मुझे उस व्यक्ति या पुस्तकालय का पता लगाना सम्भव नहीं था । यदि पता लग भी जाता, तो उसे प्राप्त करना दुष्कर था, क्योंकि वृद्धावस्था, मधुमेहग्रस्त देह और समयाभाव के कारण भोपाल से बाहर की यात्रा करना तथा वहाँ जाकर ठहरना, भोजन आदि की अनुकूल व्यवस्था बनाना मेरे लिए टेढ़ी खीर थी। फिर वहाँ जाने पर पुस्तक का स्वामी छायाप्रतिलिपि कराने तक की अवधि के लिए भी पुस्तक देने के लिए राजी हो जाय, इसकी गारण्टी नहीं थी। एक-दो परिचितों के पास किसी पुस्तक के होने की संभावना दिखी, तो उन्हें पत्र लिखा, किन्तु उनका पत्रोत्तर पाने योग्य मेरे पुण्य का उदय नहीं हुआ । सन् २००० के अक्टूबर मास में, जब मैं आचार्यश्री को प्रस्तुत ग्रन्थ के आरंभिक अध्याय सुनाने के लिए सर्वोदयतीर्थ अमरकंटक ( शहडोल, म.प्र.) गया, तब पूज्य अभयसागर जी महाराज के पास कुछ ऐसे ग्रन्थ दिखाई दिये, जिनकी मुझे तलाश थी। मैं उन्हें ललचाई नजरों से देखने लगा । मुनिश्री मेरे मनोभाव को ताड़ गये । उन्होंने तुरन्त कहा - " यदि आपको इनकी जरूरत हो तो ले जाइये।" अन्धा क्या चाहे ? दो आँखें। मैंने तुरन्त हाथ पसार दिये और मुनिश्री ने वे ग्रन्थ मेरे हाथों पर रखते हुए कहा - " आपको और भी जिन ग्रन्थों की आवश्यकता हो, उसकी सूची मुझे दे दीजिए। " मुझे जिन ग्रन्थों की उस समय आवश्यकता थी, उनके नाम लिखकर दे दिए। कुछ समय बाद वे ग्रन्थ मेरे घर पहुँच गये। फिर फरवरी २००१ में कुण्डलपुर के ऐतिहासिक पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव में पहुँचने पर मुनिश्री ने दिगम्बर - श्वेताम्बर - साहित्य से भरे हुए दो कार्टून मेरे कमरे पर पहुँचवा दिये, जो लिखे जा रहे ग्रन्थ के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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