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________________ ग्रन्थकथा [सैंतीस] आभार डॉ० सागरमल जी-कृत 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय', 'गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा' ग्रन्थ तथा उनके अभिनन्दनग्रन्थ (डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ) में संकलित उनके लेख पढ़कर मुझे इतिहास, पुरातत्त्व और सिद्धान्त-सम्बन्धी अनेक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरजैन-परम्परा की उत्पत्ति के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन मान्यताएँ क्या हैं, 'अचेल', 'निर्ग्रन्थ', 'नाग्न्य' आदि शब्दों की क्या-क्या व्याख्याएँ की गई हैं, दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों को श्वेताम्बर अथवा यापनीयः आचार्यों द्वारा रचित मानने के श्वेताम्बरमान्य आधार (हेतु) क्या हैं, इत्यादि बातों का बोध उक्त ग्रन्थों के अनुशीलन से हुआ है। तथा इन बातों की युक्तिमत्ता और प्रामाणिकता के परीक्षण के लिए मुझे दिगम्बरजैन, श्वेताम्बरजैन, वैदिक (हिन्दू) और बौद्ध सम्प्रदायों के विपुल साहित्य, पुरातत्त्वविषयक ग्रन्थ एवं अभिलेखों को पढ़ने का अवसर मिला है। इसके अतिरिक्त उनका उपर्युक्त विवादास्पद ग्रन्थ मेरे लिए विश्व के परमयशस्वी, बहुश्रुत, वीतराग, निर्ग्रन्थमुनि, परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रचुर विश्वास, वात्सल्य, आशीर्वाद एवं सान्निध्य की प्राप्ति में निमित्त बना है तथा प्रस्तुत ग्रन्थ को लिखकर मैं दिगम्बरजैन-परम्परा के इतिहास एवं साहित्य के विषय में मान्य श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने जो भ्रान्तियाँ उत्पन्न की हैं, उनका सप्रमाण-सयुक्तिक निराकरण करने का प्रयत्न कर सका हूँ। एतदर्थ मैं माननीय डॉ० सागरमल जी का आभारी हूँ। पूज्य मुनि श्री समयसागर जी, पूज्य मुनि श्री योगसागर जी एवं पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी को जब यह ज्ञात हुआ कि मैं परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रेरणा से प्रस्तुत ग्रन्थ लिख रहा हूँ , तब वे बहुत प्रसन्न हुए और ग्रन्थ की अत्यन्त आवश्यकता बतलाते हुए उन्होंने मेरी सफलता के लिए आशीष प्रदान किया। पूज्य मुनि श्री सुधासागर जी ने भी जयपुर-प्रवास (जनवरी, २००० ई०) के समय इस कार्य की सिद्धि हेतु मुझे प्रचुर आशीर्वाद दिया और आश्वस्त किया कि मुझे ग्रन्थलेखन हेतु जिन ग्रन्थों की आवश्यकता हो, उन्हें बतलाऊँ, वे तुरन्त मेरे पास भिजवा देंगे। और उन्होंने मेरे निवेदन पर हरिवंशपुराण और जयधवलाटीका-सहित कसायपाहुड के पाँच भाग मेरे पास शीघ्र भिजवा दिये। भोजपुर-चातुर्मास (सन् १९९९ ई०) के अवसर पर पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने अपने आशीर्वाद के साथ मुझे भगवतीआराधना की विजयोदयाटीका भी उपलब्ध करायी, जो अत्यन्त आवश्यक थी और दुर्लभ थी। उनसे अनेक जिज्ञासाओं का समाधान भी मैं समय-समय पर प्राप्त करता रहा। उन्होंने कुण्डलपुर में आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं मुनि श्री अभयसागर जी के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ के कुछ अध्याय भी सुने और सराहे हैं। उनकी परार्तध्यानहारिणी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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