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________________ [छत्तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ साधर्मी बन्धु के नाते समुचित वात्सल्यभाव दर्शाया और मेरी अनेक प्रकार से सहायता की। शीघ्र ही हम अच्छे मित्र बन गये। वे मुझसे आयु में ज्येष्ठ हैं, अतः मैं उनका अग्रजवत् सम्मान करने लगा। उनके साथ में कई बार अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलनों और अन्य विद्वत्संगोष्ठियों में गया और हम लोग एक ही कमरे में साथ-साथ ठहरे। उन्होंने पी-एच० डी० उपाधि के लिए मेरे शोधप्रबन्ध की रूपरेखा बनवाई और यथोचित मार्गदर्शन किया। उपाधि उपलब्ध हो जाने पर मेरा शोधप्रबन्ध 'जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन' भी उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित कराया और अपने प्रधान-सम्पादकत्व में निर्मित होनेवाले जैनविश्वकोश के एक विभाग का सम्पादक भी मुझे नियुक्त कराया। दैवयोग से उनके उक्त विवादास्पद ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' को लेकर उन्हीं से असहमति व्यक्त करने और उसमें प्रतिपादित मतों को अयुक्तिमत् और अप्रामाणिक सिद्ध करने का मौका उपस्थित हो गया। यह आश्चर्यजनक और रोचक बात थी। डॉक्टर सा० के साथ मेरी घनिष्ठता से मेरे साथी भी अवगत थे। अतः जब उन्हें पता चला कि डॉक्टर सा० द्वारा लिखित ग्रन्थ के प्रतिवाद का कार्य मुझे सौंपा गया है, तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके मन शंका से ग्रस्त हो गये कि डॉक्टर सा० के साथ इतनी घनिष्ठता होने के कारण मैं उनके दिगम्बरत्व-विरोधी प्रतिपादनों का दृढ़ता और साहस से प्रतिवाद नहीं कर पाऊँगा। मित्रता भंग होने के भय से डर-डर कर लंज-पंज भाषा और दबे-दबे स्वर में ही कुछ प्रतिकल बातें करने की हिम्मत कर सकूँगा। अतः उन्होंने प्रचार शुरू कर दिया कि उक्त ग्रन्थ के प्रतिवाद का कार्य उपयुक्त व्यक्ति को नहीं सौंपा गया। फलस्वरूप मुझे अनेक व्यक्तियों के समक्ष सफाई देनी पड़ी कि हमारी मैत्री किसी स्वार्थ पर नहीं, अपितु सत्यप्रियता के समानशील पर आश्रित है। अतः मैं सत्य का ही उद्घाटन करूँगा, और यदि कर सका, तो डॉक्टर सा० भी उसका अभिनन्दन करेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। इससे हमारी मैत्री पुष्ट ही होगी. क्षीण नहीं। जब मान्य डॉ० सागरमल जी को यह बात ज्ञात हुई कि मुझे उनके ग्रन्थ के प्रतिवाद का कार्य सौंपा गया है, तब उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ, बल्कि प्रसन्नता हुई। वस्तुतः उन्होंने एक बार मुझसे कहा भी था कि "मैं चाहता हूँ कि कोई दिगम्बर विद्वान् उनके ग्रन्थ का प्रत्युत्तर लिखे।" अतः उन्होंने मुझे प्रत्युत्तरलेखन का कार्य सौंपे जाने का स्वागत किया और जब मैंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ में और भी कई आवश्यक ग्रन्थों के अवलोकन की इच्छा प्रकट की, तब उन्होंने मुझे उसकी विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करायीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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