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ग्रन्थकथा
[पैंतीस] हुए, जिनमें सिद्धान्तसमीक्षा के तीन भाग एवं अनेकान्त मासिक के अनेक पुराने अंक प्रमुख थे। सिद्धान्तसमीक्षा में वेदवैषम्य को लेकर प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी एवं सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री आदि विद्वानों के बीच हुए वादों का संग्रह है। तथा 'अनेकान्त' के अंकों में भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों पर शोधात्मक लेख तथा यापनीयसम्प्रदाय के विषय में विशेष ज्ञातव्य उपलब्ध हैं।
आवश्यक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ मिल जाने से मैं बहुत प्रसन्न था और पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य की श्रुतभक्ति एवं उनके सुपुत्र विभवकुमार जी की पितृभक्ति देखकर गद्गद था। व्याकरणाचार्य जी ने छोटे से छोटे ग्रन्थ को भी जीवनपर्यन्त कितना सहेज कर रखा और उनके पुत्र ने पिता के स्वर्गारोहण के पश्चात् उन्हें इधर से उधर नहीं होने दिया, अपितु पिता के समान ही विनयपूर्वक सम्हाल कर रखा, यह श्रुतभक्ति और पितृभक्ति का अपूर्व उदाहरण है।
उक्त ग्रन्थों के बिना प्रस्तुत ग्रन्थ का लिखा जाना नितान्त दुष्कर होता। इनकी उपलब्धि से मेरे साध्य की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस कारण मैं आदरणीय व्याकरणाचार्य जी एवं उनके सुपुत्र श्री विभवकुमार जी तथा डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया के प्रति अपनी असीम कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
उपलब्ध साहित्य का अध्ययन कर सर्वप्रथम मैंने उन श्वेताम्बरीय ग्रन्थों की सूची बनाई, जिनमें दिगम्बरपरम्परा की प्राचीनता सिद्ध करनेवाले और षट्खण्डागम में स्त्रीमुक्ति आदि के विधान की मान्यता को मिथ्या साबित करनेवाले उल्लेख विद्यमान हैं। सौभाग्य से मैं वाराणसी के प्रसिद्ध श्वेताम्बर-शोध-संस्थान पार्श्वनाथ विद्यापीठ में निर्मित हो रहे जैन विश्वकोश के सम्पादकमण्डल का सदस्य था। इस प्रसंग में मुझे शीघ्र वाराणसी जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मैंने दस दिन रहकर श्वेताम्बरसाहित्य से उपर्युक्त सन्दर्भ ढूँढ़े और उनकी छाया-प्रतिलिपि करवाकर ले आया। कुछ समय बाद पुनः वहाँ जाने का अवसर आया और पुनः कुछ नये सन्दर्भ ढूँढकर उनकी छाया-प्रतिलिपि हस्तगत की। इस प्रकार दोनों बार के प्रयास में कम से कम एक हजार पृष्ठों का संग्रह मेरे पास हो गया। विस्मयोत्पादक रोचक संयोग
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विस्मयोत्पादक, रोचक संयोग का उल्लेख करना आवश्यक है। उपर्युक्त 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक माननीय डॉ० सागरमल जी जैन मेरे अग्रजतुल्य एवं अच्छे मित्र हैं। सन् १९७२ में जब मैं रीवा (म.प्र.) से स्थानान्तरित होकर शासकीय हमीदिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भोपाल के संस्कृत विभाग में आया, तब डॉक्टर सागरमल जी वहाँ दर्शनविभाग के अध्यक्ष थे। उन्होंने
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