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[चौंतीस]
- जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य, बीना (म.प्र.) के अभिनन्दनग्रन्थ (सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दनग्रन्थ) का अवलोकन कर रहा था। उसमें पण्डित जी के एक पुराने लेख 'षट्खण्डागम में 'संजद' पद पर विमर्श' पर मेरी दृष्टि गयी। मैं उसे तुरन्त पढ़ने लगा। उसमें सुविख्यात जैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन के एक विवादास्पद शोध-आलेख 'क्या दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के शासनों में कोई मौलिक भेद है?' का उल्लेख किया गया था, जिसमें प्रोफेसर सा० ने यह प्रतिपादित किया था कि श्वेताम्बर-आगमों के समान दिगम्बर-आम्नाय के प्राचीन ग्रन्थों में भी सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति मान्य थीं। इस आलेख पर दिगम्बरजैन विद्वानों में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और लम्बे समय तक उसके पक्षविपक्ष में वाद-विवाद चलता रहा था। उक्त आलेख के विरोध में विद्वानों ने जो मत प्रकट किये थे, उनका संग्रह दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण नाम से तीन भागों में प्रकाशित हुआ था। ये तीनों भाग व्याकरणाचार्य जी के पास भेजे गये थे, ऐसा उनके उक्त लेख में उल्लेख था। यह पढ़ कर मेरे मन में आशा की ज्योति जगी। मन ने कहा उक्त तीन संग्रहों में अवश्य ही मेरे प्रयोजन की सामग्री तथा सामग्री को उपलब्ध करानेवाले सूत्र हस्तगत हो सकते हैं। मन को यह विश्वास भी हुआ कि ये तीनों संग्रह अभी भी व्याकरणाचार्य जी के पुस्तकालय में मौजूद हो सकते हैं।
व्याकरणाचार्य जी के परिवार से मैं सुपरिचित था। उनके ज्येष्ठ सुपुत्र श्री विभवकुमार जी कोठिया अब घर के मुखिया हैं। उन्हीं के साथ व्याकरणाचार्य जी के भतीजे सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया भी रहते थे। मैं तुरन्त बीना दौड़ा गया और माननीय न्यायाचार्य जी एवं श्री विभवकुमार जी को अपना प्रयोजन बतलाते हुए व्याकरणाचार्य जी के पुस्तकालय से कुछ आवश्यक ग्रन्थ ढूँढ़ने और उन्हें साथ ले जाने की अनुमति मांगी। दोनों महानुभावों ने सहर्ष अनुमति दे दी। मैं उनके पुस्तकालय में जाकर छानबीन करने लगा। चार-पाँच पुस्तकें उठाने के बाद मैं हर्ष से उछल पड़ा। जिन दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण नामक तीन ग्रन्थों को मैं चाहता था, वे वहाँ एक साथ मौजूद थे। मैंने उन्हें उठा लिया और पन्ने पलटकर उत्सुकता से देखने लगा। ज्यों-ज्यों पन्ने पलटता जाता था, मेरा हर्ष संयम खोता जाता था। जो सामग्री मुझे आवश्यक थी, उसमें से बहुत सी उनमें उपलब्ध थी। उनमें दिगम्बरजैन, श्वेताम्बरजैन, वैदिक (हिन्दू) एवं बौद्ध साहित्य के उन सन्दर्मों का उल्लेख था, जिनसे दिगम्बरपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है और प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन ने षट्खण्डागम में जो सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का विधान बतलाया है, वह मिथ्या सिद्ध होता है। उन्हें मैंने सम्हाल कर रख लिया और पुनः एकएक ग्रन्थ उठाकर देखने लगा। देखते-देखते मुझे अन्य अनेक उपयोगी ग्रन्थ भी प्राप्त
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