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ग्रन्थकथा
[तेंतीस] तथा दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जिन तथ्यों की सत्यता का अपलाप किया है, उनकी सत्यता सिद्ध करने के लिए जैन-जैनेतर साहित्य, अभिलेखों तथा पुरातत्त्व से सर्वस्वीकार्य, अखण्ड्य प्रमाणों एवं युक्तियों का अन्वेषण करना ही इस कार्य में अपेक्षित था। अतः यह दुष्कर था। तथापि जिनशासन एवं परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रति मेरी असीम भक्ति ने मुझे ऐसा साहस प्रदान किया कि मैं इसे सम्पन्न करने के लिए कृतसंकल्प हो गया।
मैंने पं० नाथूरामजी प्रेमी के जैनसाहित्य और इतिहास, श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया के यापनीय और उनका साहित्य, डॉ० सागरमल जी के जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, मुनि श्री कल्याणविजय जी के श्रमण भगवान् महावीर, आचार्य हस्तीमल जी-कृत जैनधर्म का मौलिक इतिहास (भाग १, २, ३ एवं ४), मुनि श्री नगराज जी-कृत आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (खण्ड १, २), पं० सुखलाल जी संघवीविवेचित तत्त्वार्थसूत्र (विवेचनसहित), पं० दलसुख़ जी मालवणिया की न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना, मुनि श्री विजयानन्द-सूरीश्वर 'आत्माराम'-कृत, तत्त्वनिर्णयप्रासाद, मुनि श्री सागरानन्दसूरीश्वर-कृत तत्त्वार्थकर्तृ-तन्मतनिर्णय, उपाध्याय मुनि श्री आत्माराम जी-कृत तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय इत्यादि ग्रन्थों एवं प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन के विभिन्न लेखों, पं० दलसुख जी मालवणिया के लेख 'क्या बोटिक दिगम्बर हैं?' (जैन विद्या के आयाम : ग्रन्थाङ्क २), प्रो० एम० ए० ढाकी के लेख 'The Date of Kundakundācārya' (Aspects of Jainology, Vol. III) तथा डॉ० के० आर० चन्द्र के लेख 'षट्प्राभृत के रचनाकार और उसका रचनाकाल' (श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर १९९७) का गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन किया और उनका प्रत्युत्तर लिखने हेतु आवश्यक साहित्य जुटाने के प्रयत्न में लग गया। और इसे जिनशासन तथा परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद का ही चमत्कार कहना चाहिए कि मुझे आवश्यक साहित्य अप्रत्याशितरूप से यथाशीघ्र मिलता गया। मिलने का प्रसंग अतिरोचक है। जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ का अध्ययन करते समय मैंने देखा कि उसमें षट्खण्डागम को, मानुषियों में संयतगुणस्थान के प्रतिपादक सत्प्ररूपणासूत्र क्र. ९३ के आधार पर, स्त्रीमुक्तिसमर्थक यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। 'मानुषियों में संयतगुणस्थान-प्रतिपादक संजद (संयत) शब्द मूलतः उक्त सूत्र में है या नहीं, कहीं वह लिपिकार की भूल से तो उल्लिखित नहीं हो गया है?'- इस विषय पर आज से लगभग ६४ वर्ष पूर्व (सन् १९४३-४४ में) दिगम्बरजैन विद्वानों के बीच गम्भीर शास्त्रार्थ हुआ था। उसके बाद भी यह विषय कई वर्षों तक जैन पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना रहा। इसकी धुंधली स्मृति मेरे मस्तिष्क में विद्यमान थी। एक दिन मैं जैनजगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं स्वतंत्रतासेनानी माननीय
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