________________
[बत्तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ (उ० प्र०) में पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं प्राचार्य पं० नरेन्द्रप्रकाश जी की अध्यक्षता में अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् का ७४ वाँ अधिवेशन सम्पन्न हुआ। उसमें शास्त्रिपरिषद् ने एक प्रस्ताव (क्रमांक ३) पारित कर मझसे उपर्यक्त उद्देश्य को पर्ण करनेवाला ग्रन्थ लिखने का आग्रह किया। मेरे मन में भी उक्त ग्रन्थ का प्रतिवाद लिखने की इच्छा मचला करती थी। अतः मैंने परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी एवं पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी के आदेशों एवं शास्त्रिपरिषद् के आग्रह को सहर्ष शिरोधार्य कर लिया। इस विषय में विशेष बात यह है कि मेरा मन परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रति सुदीर्घकाल से असीम श्रद्धा और भक्ति से अभिभूत है। इसलिए उनकी इच्छा और प्रेरणा ने मन को इस प्रकार छुआ कि ग्रन्थलेखन की इच्छा ने लौहसंकल्प का रूप धारण कर लिया। सन्दर्भग्रन्थों की उपलब्धि का अतिशय
कार्य अत्यन्त कठिन था, क्योंकि इसे सम्पन्न करने के लिए विस्तृत, गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन-चिन्तन-मनन की आवश्यकता थी। न केवल दिगम्बर, श्वेताम्बर
और यापनीय साहित्य का व्यापक अध्ययन अपेक्षित था, अपितु वैदिक और बौद्ध साहित्य तथा अभिलेखों एवं पुरातत्त्व का अनुशीलन भी जरूरी था। क्योंकि यह कार्य न तो किन्हीं दार्शनिक तत्त्वों के स्वरूप, लक्षण, परिभाषाओं या भेदोपभेदों के वर्णन से सम्बद्ध था, न किसी इतिहास या चरित के लेखन से और न किसी ग्रन्थ की समीक्षा या विविध दर्शनों के तुलनात्मक अनुशीलन से, अपितु यह कार्य सत्य को झुठलानेवाले मिथ्या हेतुओं को मिथ्या सिद्ध करने के लिए अखण्ड्य प्रमाणों और युक्तियों की खोज से सम्बद्ध था, जो उपर्युक्त विभिन्न साहित्यों, अभिलेखों एवं पुरातत्त्व के विस्तृत-गहन-सूक्ष्म अध्ययन, अभीक्ष्ण चिन्तन-मनन एवं विज्ञों के साथ परामर्श से ही संभव था।
सत्य का अपलाप करने के लिए अधिक परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। एक हेत्वाभास के द्वारा भी बड़े से बड़े सिद्धान्त की सत्यता के विषय में सन्देह पैदा किया जा सकता है, किन्तु उस सन्देह को दूर करना, अर्थात् सत्य की सत्यता सिद्ध करना आसान काम नहीं है। इसके लिए अनेक अखण्ड्य युक्तियों और तटस्थ प्रमाणों का प्रस्तुतीकरण आवश्यक होता है, तब कहीं उसके विषय में उत्पन्न किये गये सन्देह का उन्मूलन संभव होता है। महासती सीता के सतीत्व के विषय में एक मामूली आदमी ने बड़ी आसानी से सन्देह उत्पन्न कर दिया था, किन्तु उसे मिटाने के लिए सीता जी को अग्निपरीक्षा जैसा सर्वस्वीकार्य प्रमाण देना पड़ा था। मुझे सौंपा गया कार्य इसी प्रकृति का था। यापनीयपक्षधर विद्वानों ने दिगम्बरपरम्परा को अर्वाचीन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org