SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थकथा [इकतीस] के अतिरिक्त सन्मतिसूत्र, हरिवंशपुराण तथा बृहत्कथाकोश, इन तीन दिगम्बरग्रन्थों को भी यापनीयसम्प्रदाय के खाते में डाल दिया। जब इस ग्रन्थ पर श्वेताम्बर विद्वान् माननीय डॉ० सागरमल जी की नजर पड़ी, तब इसने उन्हें और भी अनेक दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उत्कण्ठित कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने गहन बौद्धिक व्यायाम कर जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय नामक बृहद् ग्रन्थ का प्रणयन किया और उसमें दिगम्बरजैन-परम्परा को आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विक्रम की छठी शती में प्रवर्तित सिद्ध करने का आनुवंशिक धर्म निभाते हुए सोलह दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया, जो इस प्रकार हैं-कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, उसकी विजयोदयाटीका, मूलाचार, कसायपाहुडचूर्णिसूत्र, तिलोयपण्णत्ती, पद्मपुराण, वरांगचरित, हरिवंशपुराण, स्वयंभूकृत पउमचरिउ, बृहत्कथाकोश, बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र, छेदशास्त्र, पिण्डछेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमणसूत्र। इसके अतिरिक्त मान्य विद्वान् ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ न बतलाते हए भी उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा में रचित कहकर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-गत मान्यताओं के आधार पर वस्त्रपात्रधारी-सम्प्रदाय का ग्रन्थ सिद्ध करने का उपक्रम किया है। इसी प्रकार सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को भी इसी परम्परा का आचार्य बतलाया है। कसायपाहुड आदि १६ दिगम्बरग्रन्थों को यापनीय-आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करने के लिए लेखक ने जिन हेतुओं का अवलम्बन किया है, उनमें से अनेक का तो अस्तित्व ही नहीं है और अनेक हेतु 'हेतु' जैसे दिखते हैं, किन्तु हेतु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं। अतः जब लेखक की उक्त कृति दिगम्बर जैन मुनिवरों और विद्वज्जनों की दृष्टि में आयी, तब उसका अध्ययन कर उनके हृदय गहन पीड़ा से क्षुब्ध हो गये। उनकी अन्तरात्मा ने कहा कि इस ग्रन्थ में उड़ेले गये मिथ्यावाद के मिथ्यात्व का उद्घाटन किया जाना चाहिए। अन्यथा यथार्थ से अनभिज्ञ अध्येता इस मिथ्यावाद को ही यथार्थ समझ लेंगे और समझते रहेंगे, फलस्वरूप इसकी ही पुष्टि करेंगे, जैसा कि कुछ नवीन ग्रन्थों और पत्रिकाओं में देखा जा रहा है। ऐसा होने देना जिनशासन के अवर्णवाद का अनुमोदन होगा। अपरञ्च, धर्म का नाश, सत्क्रियाओं का विध्वंस तथा समीचीन सिद्धान्त का लोप होने पर मौन रहना सत्यमहाव्रत एवं सत्याणुव्रत का उल्लंघन है। इन अनिष्टों का प्रतीकार मुनि और श्रावक दोनों का धर्म है। इस भावना से प्रेरित होकर दिगम्बर जैन जगत् के वर्तमान मूर्धन्य आचार्य परमपूज्य विद्यासागर जी महाराज ने, जो उक्त ग्रन्थ को पढ़कर अत्यन्त व्यथित थे, मुझे एक ग्रन्थ लिखने के लिए प्रेरित किया, जिसमें उक्त ग्रन्थ के मिथ्यावाद को सप्रमाण अनावृत कर सत्य के दर्शन कराये जायें। सराकोद्धारक पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज ने भी मुझे इस कार्य के लिए प्रोत्साहित किया। २ जून १९९८ को मेरठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy