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[तीस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ विक्रम की छठी शताब्दी न मानकर वीरनिर्वाण से लगभग ६५० वर्ष पश्चात् (ई० सन् १२३) अनुमानित किया है।
सुप्रसिद्ध दिगम्बरजैन विद्वान् पं० नाथूराम जी 'प्रेमी' ने ईसवी सन् १९३९ में अनेकान्त मासिक में लेख लिखकर एक नई बात सामने रखी कि दिगम्बर जैनों द्वारा मान्य प्रसिद्ध ग्रन्थ भगवती-आराधना तथा उसकी विजयोदया टीका दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ नहीं हैं, अपितु उनकी रचना यापनीय-सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा की गई है। तत्पश्चात् जैन साहित्य और इतिहास के द्वितीय संस्करण (सन् १९५६) में उन्होंने मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र को भी यापनीयग्रन्थ घोषित कर दिया। यापनीयसम्प्रदाय जैनों का ही एक सम्प्रदाय था, जिसके साधु दिगम्बरजैन साधुओं के ही समान नग्न रहते थे, मयूरपिच्छी रखते थे और पाणितलभोजी थे, किन्तु उनकी प्रायः सभी मान्यताएँ श्वेताम्बरों के समान थीं। वे मानते थे कि वस्त्रधारण करने पर भी मुक्ति हो सकती है, स्त्री भी स्त्रीशरीर से मोक्ष प्राप्त कर सकती है तथा केवली भगवान् भी मनुष्यों के समान कवलाहार ग्रहण करते हैं। वे श्वेताम्बरों के समान अन्यलिंग (अन्यवेश) एवं गृहिलिंग (गृहस्थवेश) से भी मुक्ति स्वीकार करते थे। प्रेमी जी ने भगवती-आराधना आदि उक्त ग्रन्थों में यापनीयमत के इन सिद्धान्तों का उल्लेख होना बतलाया है।
प्रेमी जी द्वारा भगवती-आराधना को यापनीय ग्रन्थ घोषित किये जाने से मुनि श्री कल्याणविजय जी को एक नई उद्भावना करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने यह उद्भावित किया कि बोटिक शिवभूति ने जिस अचेलमार्ग का प्रवर्तन किया था, वह वस्तुतः यापनीयमत था और भगवती-आराधना इसी मत का मूल (प्रथम) ग्रन्थ है। उन्होंने यह कथा भी गढ़ी कि इस मत के दक्षिण में पहँचने पर दक्षिण भारतीय कुन्दकुन्द भी इस मत के अनुयायी बने, किन्तु कुछ समय बाद ही वे इससे अलग हो गये और उन्होंने सर्वथा (निरपवाद) अचेलमार्गी दिगम्बरसम्प्रदाय का सूत्रपात किया। मुनि श्री कल्याणविजय जी ने अपना यह मत भगवती-आराधना के ही आधार पर प्रमाणित करने की चेष्टा की है।
प्रेमी जी से ही प्रेरणा प्राप्त कर दिगम्बर जैन विदुषी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने यापनीय और उनका साहित्य नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें उन्होंने उपर्युक्त ग्रन्थों
१. देखिए , सन् १९४४ में हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में सम्पन्न अखिलभारतवर्षीय प्राच्य
सम्मेलन के १२ वें अधिवेशन में पठित प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन का शोधपत्र 'क्या दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के शासनों में कोई मौलिक भेद है?' ('दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण'/
अंश १/ पृष्ठ २३/ प्रकाशक-दिगम्बर जैन पंचायत बम्बई/सम्पादक-पं० रामप्रसाद जी शास्त्री)। २. देखिए , 'श्रमण भगवान् महावीर'/ पृष्ठ २९६।
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