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________________ ग्रन्थकथा ग्रन्थलेखन का निमित्त और प्रेरणास्रोत कभी-कभी ऐसी अप्रत्याशित, अनभिमत घटनाएँ घट जाती हैं, जो न चाहते हुए भी मनुष्य को शुभ कार्य में लगा देती हैं। मेरे मित्र एवं अग्रजतुल्य, सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् तथा पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी के भूतपूर्व निदेशक डॉ० सागरमल जी जैन द्वारा जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ का लिखा जाना ऐसी ही एक घटना है, जिसने मुझे अकस्मात् दिगम्बर, श्वेताम्बर, यापनीय, वैदिक (हिन्दू), बौद्ध एवं संस्कृत साहित्य तथा शिलालेखों और पुरातत्त्व के गहन अनुशीलन में लगा दिया और मेरी लेखनी से इतने शब्द पंक्तिबद्ध करा दिये, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ का रूप धारण कर लिया। प्राचीन श्वेताम्बराचार्य यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे हैं कि “सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का विरोधी दिगम्बर-जैन-आम्नाय भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत नहीं है। भगवान् महावीर ने तो यह उपदेश दिया था कि अचेल और सचेल दोनों लिंग मुक्ति के मार्ग हैं तथा स्त्री को भी मोक्ष के योग्य बतलाया था और यह भी कहा था कि केवली भगवान् साधारण मनुष्यों की तरह कवलाहार करते हैं। किन्तु वीरनिर्वाण संवत् ६०९ (ई० सन् ८२) में बोटिक शिवभूति नामक श्वेताम्बर साधु ने अपने गुरु आर्यकृष्ण से विद्रोह कर सचेलमुक्ति, स्त्रीमुक्ति एवं केवलि-कवलाहार का निषेध करनेवाला दिगम्बरजैनमत चला दिया।" यह तो प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों की कृपा थी कि उन्होंने दिगम्बरजैनमत को कम से कम इतना प्राचीन मान लिया, उसे और अर्वाचीन घोषित नहीं किया, किन्तु बीसवीं शताब्दी ई० के विख्यात श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने सन् १९४१ ई० में लिखित श्रमण भगवान् महावीर नामक ग्रन्थ में अपने प्राचीन आचार्यों के उपर्युक्त मत को. अमान्य करते हुए यह स्थापित करने की चेष्टा की है, कि दिगम्बरजैनमत का प्रचलन विक्रम की छठी शती (पाँचवीं सदी ई०) में दक्षिणभारत के विद्वान् कुन्दकुन्द ने किया था। उनके इस मत को प्रायः सभी श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने अपना लिया। आश्चर्य तो यह है कि दिगम्बरजैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन ने भी यह मान्यता स्वीकार कर ली। किन्तु उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द का स्थितिकाल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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