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२६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४ / प्र०१ ने वज्रप्रहार से उन्हें मार डाला। इस कथा से जैनधर्म अतिप्राचीन सिद्ध होता है।
कलियुग के दोष बतलाते हुए मत्स्यपुराण (अध्याय १४४) में कहा गया है कि इस युग में राजा लोग अधिकांशतः शूद्रयोनि के होते हैं और काषायवस्त्रधारी (बौद्ध), निष्कच्छ (नग्न) तथा कापालिक आदि पाषण्डियों की प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं
राजानः शूद्रभूयिष्ठाः पाषण्डानां प्रवृत्तयः।
काषायिणश्च निष्कच्छास्तथा कापालिनश्च ह॥ १४४/४०॥ मत्स्यपुराण की अन्य प्रतियों में 'काषायिणश्च' के स्थान में 'नग्नास्तथा च' एवं 'निष्कच्छाः' के स्थान में 'निर्ग्रन्थाः'१२ पाठ मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि तीसरी शती ई० के पूर्वार्ध में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के नग्न साधु विद्यमान थे।
विष्णुपुराण (३००-४०० ई०) में नाभि, मेरुदेवी, ऋषभ, भरत,
नग्न, दिगम्बर, बर्हिपिच्छधर, आर्हत, अनेकान्तवाद श्री आर० सी० हाजरा ने पुराणों पर महत्त्वपूर्ण शोध कार्य किया है। उन्होंने विष्णुपुराण का रचनाकाल तीसरी-चौथी शताब्दी ई० बतलाया है।३ इसमें मौर्य और नंद राजाओं का विवरण है, गुप्तकालीन राजाओं के नाम नहीं है। पुराणों में प्राचीनता
और धर्म तथा दर्शन के निरूपण की प्रामाणिकता के कारण विष्णुपुराण का निर्विवाद महत्त्व है। इसके द्वितीय अंश में आद्य जैन तीर्थंकर ऋषभ, उनके माता-पिता नाभि एवं मरुदेवी तथा पुत्र भरत का वर्णन किया गया है और तृतीय अंश में जैन और बौद्ध सम्प्रदायों का विवरण है। १०.१. भगवान् ऋषभदेव प्रथम मनु स्वायंभुव के पाँचवें वंशज
विष्णुपुराण (अंश २/ अध्याय १) के निम्नलिखित श्लोकों में प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव को १.स्वायंभुव मनु, २. प्रियव्रत, ३.आग्नीध्र, ४. नाभि एवं
११. गत्वाऽथ मोहयामास रजिपुत्रान्वृहस्पतिः।
जिनधर्मं समास्थाय वेदबाह्यं स वेदवित्॥ २४/४७॥ वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः। वेदबाह्यान् परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान् ॥ २४/४८ ॥
जघान शक्रो वज्रेण सर्वान्धर्मबहिष्कृतान्॥ २४/४९ ॥ १२. मत्स्यपुराण / पा.टि./१४४/४०/ पृ.७११ । १३. डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी : संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास / पृ.७७। १४. वही / पृ.८१।
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