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________________ अ०४ / प्र० १ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २६१ "आम् भोदि! जण्णोपवीदेण बम्हणो, चीवरेण रत्तपडो । जदि वत्थं अवम समणओ होमि । " ( पंचम अंक / पृष्ठ १४३)। अनुवाद -"हाँ, देवि ! मैं यज्ञोपवीत धारण करने से ब्राह्मण हूँ, चीवर पहन लूँ तो रक्तपट (बौद्ध) हो जाऊँगा और यदि वस्त्र उतार दूँ तो श्रमण बन जाऊँगा।" इससे स्पष्ट होता है कि भास के युग में दिगम्बरजैन मुनियों का अस्तित्व था । इतना ही नहीं, उनके समय में दिगम्बरजैन मुनि ही 'श्रमण' शब्द से प्रसिद्ध थे और उनके विषय में यह भी स्पष्ट था कि वे अवैदिक थे । यह द्वितीय अंक (पृ. ३०) में चेटी और विदूषक के निम्नलिखित संवाद से ज्ञात होता है । विदूषक से परिहास करते हुए चेटी कहती है कि मैं भोजन का निमंत्रण देने के लिए किसी ब्राह्मण को ढूँढ़ रही हूँ । तब विदूषक, जो कि ब्राह्मण है, कहता है- " भोदि ! अहं को समणओ?" (देवि! मैं क्या श्रमण हूँ ? ) । चेटी परिहास में कहती है- " तुवं किल अवेदिओ " (हाँ, तुम अवैदिक हो) । इस प्रकार यदि भास का समय ई० पू० चतुर्थ शताब्दी माना जाय, तो दिगम्बरमुनियों का अस्तित्व उसके पूर्व से सिद्ध होता है और यदि तृतीय शताब्दी ई० स्वीकार किया जाय, तब भी यह सिद्ध होता है कि उनकी परम्परा इसके पूर्व से चली आ रही थी और ऋग्वेद तथा महाभारत के उल्लेखों से सिद्ध है कि वह ईसापूर्व - शताब्दियों से प्रवहमान थी । ९ मत्स्यपुराण (३०० ई०) में निष्कच्छ, निर्ग्रन्थ, नग्न डॉ० रामचन्द्र जी तिवारी ने बतलाया है कि मत्स्यपुराण प्राचीनतम पुराण माना जाता है, क्योंकि केवल इसी में २३६ ई० के आन्ध्रराजवंश का वर्णन है, गुप्तवंश का इसमें उल्लेख नहीं है । १० इस पुराण में जिनधर्म को विनाश का कारण सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित कथा गढ़ी गई है। राजा रजि के पुत्रों ने इन्द्र का साम्राज्य छीन लिया। तब उसने वृहस्पति के पास जाकर प्रार्थना की, कि मुझे मेरा राज्य वापिस दिलाने के लिए कुछ उपाय कीजिए। वृहस्पति ने ग्रहशान्तिविधान तथा पौष्टिक कर्म करके इन्द्र को बलवान् तथा साहसी बना दिया और रजिपुत्रों के पास जाकर उन्हें मोहित कर जैनधर्मावलम्बी बना दिया, जिससे वे वेदत्रयी से च्युत होकर विनाश के योग्य हो गये। तब इन्द्र १०. कालिदास की तिथि संशुद्धि / पृ. २१२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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