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________________ २५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ पंचतन्त्र (३०० ई०) में नग्नक, क्षपणक, दिगम्बर, धर्मवृद्धि सुप्रसिद्ध संस्कृतसाहित्य-इतिहासकार पं० बलदेव उपाध्याय लिखते हैं-"पंचतंत्र की कहानियाँ बड़ी प्राचीन हैं। बृहत्कथा (तीसरी शताब्दी) तथा तन्त्राख्यायिका के रूप में उसका मौलिक रूप आज भी हमारे मनन के लिए विद्यमान है। --- ऐतिहासिक तथ्य यह है कि जब षष्ठ शतक में भारत का तथा फारस का घनिष्ठ सम्बन्ध था, तब इन रोचक तथा उपदेशप्रद कथाओं की ओर फारस के न्यायी बादशाह खुशरो नौशेरवाँ (५३१ ई०-५७९ ई०) की दृष्टि आकृष्ट हुई। इसके दरबारियों में एक संस्कृत के ज्ञाता हकीम थे, उनका नाम था बुरजोई। इन्हीं हकीम सा० ने पहले-पहल पञ्चतन्त्र का प्रथम अनुवाद पहलवी (प्राचीन फारसी) भाषा में ५३३ ई० में किया था।"(संस्कृतसाहित्य का इतिहास / पृ. ४२४-४२५)। पंचतंत्र के सबसे प्राचीन संस्करण में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को उद्धृत किया गया है, अतः इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा तीसरी शताब्दी ई. पू. कही जा सकती है। हर्टल पंचतंत्र के प्राचीनतम संस्करण का रचनाकाल दूसरी शती ई० पू० मानते हैं। विंटरनित्स ने पंचतंत्र के वर्तमान स्वरूप का निर्माणकाल ३००-४०० ई० के आसपास माना है, पर वे यह भी स्वीकार करते हैं कि अपने मूल रूप में यह ग्रन्थ इससे पहले अस्तित्व में आ चुका था। पंचतंत्र के 'अपरीक्षित कारक' में पहली ही कथा मणिभद्र श्रेष्ठी की है जो नग्न क्षपणकों पर आधारित है। मणिभद्र सेठ निर्धन हो जाता है और निर्धनता से दुःखी होकर आत्महत्या का निश्चय कर सो जाता है। स्वप्न में उसके पूर्वपुरुषों द्वारा उपार्जित पद्मनिधि क्षपणकरूप में दर्शन देकर कहती है-"तुम निराश मत होओ। मैं सुबह इसी रूप में तुम्हारे घर आऊँगी। तुम मेरे सिर पर लाठी से प्रहार करना, मैं स्वर्ण बन जाऊँगी। उसे तुम रख लेना।" सुबह ऐसा ही हुआ। क्षपणक प्रकट हुआ और सेठ ने उस पर लाठियों से प्रहार किया। वह स्वर्ण बन गया। सेठ ने उठाकर उसे घर में रख लिया। सेठ की पत्नी ने इस घटना के पूर्व एक नाई को पैर धोने के लिए बुलाया था। उसने यह सारी घटना देख ली। सेठ ने उसे धन और वस्त्र देकर सन्तुष्ट किया और कहा कि तुम यह बात किसी से न कहना। नाई घर जाकर सोचने लगा कि ये नग्न क्षपणक सिर पर लाठियों का प्रहार करने से स्वर्ण बन जाते हैं। इसलिए मैं भी ऐसा ही करूँगा। प्रातः वह क्षपणकविहार में जाकर प्रधानक्षपणक को 'नमोऽस्तु' निवेदित कर प्रार्थना करता है कि "आज आप ७. डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी : संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास / पृ.३४५-३४६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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