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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २५९ समस्त मुनियों सहित आहार के लिए मेरे घर पधारें।" प्रधान क्षपणक ने कहा"हम ब्राह्मणों के समान आमंत्रण करने पर नहीं आते। आहार के समय श्रावकों की बस्ती में जाते हैं और जो श्रावक भक्तिपूर्वक हमारी अभ्यर्थना करता है, उसी के यहाँ आहार ग्रहण करते हैं।" नाई ने कहा-"यह बात मैं जानता हूँ, लेकिन मैंने पुस्तकों के आच्छादन योग्य बहुमूल्य वस्त्र इकट्ठे कर रखे हैं और पुस्तकों का लेखन कराने के लिए लेखकों को देने हेतु धन भी संचित करके रखा है। इसलिए आप कालोचित कार्य करें।" यह कहकर नाई चला गया और घर में एक खैर का लट्ठ तैयार कर किवाड़ों के पीछे छिपा दिया। उसके बाद वह पुनः विहार गया और जब वे क्षपणक आहारचर्या के लिए विहार से निकल रहे थे, तब उनसे अपने घर चलने के लिए बड़ी मिन्नतें करने लगा। वे क्षपणक भी वस्त्र और धन के लोभ में अन्य भक्त श्रावकों को छोड़कर उसके घर चल गये। ज्यों ही वे नाई के घर में प्रविष्ट हुए, नाई ने किवाड़ बन्द कर दिये और मुनियों के सिर पर लट्ठ मारने लगा। कुछ मुनि तत्काल मर गये और कुछ चीत्कार करते हुए इधर-उधर भागने लगे। चीत्कार सुनकर सिपाही आये और सारा वृत्तान्त जानकर नाई को पकड़कर ले गये और उसे शूली पर चढ़ा दिया। कथा का आवश्यक संस्कृतपाठ नीचे दिया जा रहा है
"नापितोऽपि स्वगृहं गत्वा व्यचिन्तयत्-नूनमेते सर्वेऽपि नग्नकाः शिरसि दण्डहताः काञ्चनमया भवन्ति। तदहमपि प्रातः प्रभूतानाहूय लगुडैः शिरसि हन्मि, येन प्रभूतं हाटकं मे भवति। एवं चिन्तयतो महता कष्टेन निशा अतिचक्राम। अथ प्रभाते अभ्युत्थाय बृहल्लगुडमेकं प्रगुणीकृत्य क्षपणकविहारं गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिणत्रयं विधाय जानुभ्यामवनिं गत्वा वक्त्रद्वार-न्यस्तोत्तरीयाञ्चलस्तारस्वरेणेमं श्लोकमपठत्
जयन्ति ते जिना येषां केवलज्ञानशालिनाम्। आजन्मनः स्मरोत्पत्तौ मानसेनोषरायितम्॥ सा जिह्वा या जिनं स्तौति तच्चित्तं यजिने रतम्।
तावेव च करौ श्लाघ्यौ यौ तत्पूजाकरौ करौ॥ एवं संस्तुत्य ततः प्रधानक्षपणकमासाद्य क्षितिनिहितजानुचरणः 'नमोऽस्तु , वन्दे' इत्युच्चार्य लब्धधर्मवृद्ध्याशीर्वादः मुखमालिकानुग्रहलब्धव्रतादेशः उत्तरीयनिबद्धग्रन्थिः सप्रश्रयमिदमाह-"भगवन् अद्य विहरणक्रिया समस्तमुनिसमेतेनास्मृद्गृहे कर्त्तव्या।" स आह-"भोः श्रावक! धर्मज्ञोऽपि किमेवं वदसि? किं वयं ब्राह्मणसमानाः यद् आमन्त्रणं करोषि? वयं सदैव तत्कालपरिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाजं श्रावकमवलोक्य तस्य गृहे गच्छामः। तेन कृच्छ्रादभ्यर्थितास्तद्गृहे प्राणधारणमात्रामशनक्रियां कुर्मः। तद् गम्यताम्। नैवं भूयोऽपि वाच्यम्।"
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