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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २५७ या कृतयुग (अवधि १७,२८,००० वर्ष), त्रेता (१२,९६,००० वर्ष), द्वापर (८,६४,००० वर्ष) और कलियुग (४,३२,००० वर्ष)। वर्तमानयुग कलियुग है। (वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत-हिन्दीकोश / 'युगम्')। कलियुग का आरम्भ ईसापूर्व ३१०२ वर्ष की १३ फरवरी को हुआ था (वही/संस्कृत-हिन्दी-कोश / कलिः')। इस कालगणना के अनुसार सिद्ध होता है कि दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व द्वापरयुग में अर्थात् आज से लगभग आठ लाख चौसठ हजार वर्ष के पूर्व भी था। तथा महाभारत में नग्न क्षपणक के उल्लेख से सिद्ध होता है कि दिगम्बरजैनपरम्परा का अस्तित्व 'महाभारत' के रचनाकाल (५०० ई.पू. से १०० ई.पू.) से भी प्राचीन है। तत्त्वनिर्णयप्रासाद ग्रन्थ के लेखक श्वेताम्बराचार्य मुनि श्री विजयानन्दसूरीश्वर 'आत्माराम' जी (वि० सं० १९१४ के लगभग) ने भी उक्त कथा के आधार पर जैनधर्म को वेदव्यास जी के जन्म से पूर्ववर्ती प्रतिपादित किया है। किन्तु , उन्होंने नग्नक्षपणक को दिगम्बरजैन मुनि न मानकर श्वेताम्बर जिनकल्पिक मुनि माना है, क्योंकि वे भी नग्न रहते थे। पर उनका यह मत पूर्वोद्धृत प्रमाणों के विरुद्ध है। पूर्व में दिगम्बरसाहित्य, श्वेताम्बरसाहित्य, वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य तथा शब्दकोशों से जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनसे स्पष्ट है कि भारत के सभी धार्मिक सम्प्रदायों में 'क्षपणक' शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए ही प्रसिद्ध था। उपर्युक्त सम्प्रदायों के साहित्य तथा संस्कृतसाहित्य में क्षपणकों को मयूरपिच्छसहित तथा 'धर्मवृद्धि' का आशीर्वाद देते हुए चित्रित किया गया है, जो केवल दिगम्बरजैन मुनि के लक्षण हैं। इससे उपर्युक्त तथ्य में सन्देह के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं रहता। इसकी विस्तार से चर्चा आगे की जायेगी। चाणक्यशतक (४०० ई० पू०) में नग्नक्षपणक ___ यह नीति के पद्यों का ग्रन्थ है। इसके रचयिता चाणक्य हैं, जो ई० पू० चतुर्थ शताब्दी में सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने अपने शतक के ११०वें श्लोक में लिखा है-'नग्नक्षपणके देशे रजकः किं करिष्यति' (आप्टे-कृत संस्कृत-हिन्दी कोश/ पृ. ३१५) अर्थात् जिस देश में नग्नक्षपणक ही रहते हों, वहाँ धोबी का क्या काम? इससे भी सिद्ध होता है कि ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में दिगम्बरजैनमुनि-परम्परा विद्यमान थी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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