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२५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४ / प्र० १
तमुत्तोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात् ।
तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह । गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश ।" ( महाभारत / आदिपर्व / तृतीय अध्याय पृ. ५७)।
उपाख्यान का आशय यह है कि नागराज तक्षक ने कुण्डलों का अपहरण करने के लिए नग्न क्षपणक अर्थात् दिगम्बरजैन मुनि का रूप धारण किया था, जैसे रावण ने सीता के अपहरण के लिए साधु का वेश धारण किया था। इससे यह ध्वनित होता है कि उस समय दिगम्बरजैन मुनि लोक में आदर और श्रद्धा से देखे जाते थे । इसीलिए धूर्तलोग दूसरों को ठगने के लिए दिगम्बरजैन मुनि का वेश धारण कर लेते थे।
उत्तङ्क जनमेजय के समकालीन थे। जनमेजय परीक्षित के पुत्र, अभिमन्यु के पौत्र तथा अर्जुन के प्रपौत्र थे । इससे यह तथ्य सामने आता है कि महाभारत में वर्णित उपाख्यान उसकी रचना के पूर्व से श्रुतिपरम्परा में प्रवहमान थे। उन्हें इतिहास और पुराण कहा गया है। उनका मन्थन करके ही व्यास जी ने महाभारत की रचना की थी, जैसा कि उसमें कहा गया है
इतिहास - पुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम् ॥ १/१ / ६३ ॥
उत्तङ्कोपाख्यान महाभारत के आदिपर्व के पौष्यपर्व नामक तृतीय अध्याय में वर्णित है, अतः उत्तङ्क की कथा में नग्न क्षणपक का एक पात्र के रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि जितने प्राचीन 'महाभारत' के ( जनमेजय, नागराज तक्षक, ब्रह्मर्षि उत्तंक, महाराज पौष्य आदि) पात्र हैं, उनसे भी अधिक प्राचीन दिगम्बरजैन मुनियों (नग्न क्षपणकों) की परम्परा है, तभी तत्कालीन समाज में वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतधारी विश्वसनीय साधुओं के रूप में प्रसिद्ध और सुपरिचित थे, जिसके कारण तक्षक उत्तंक को ठगने के लिए दिगम्बरजैन मुनि का रूप धारण करता है और उत्तंक उसे वास्तव में दिगम्बरजैन मुनि समझ कर कुण्डलों के अपहरण से शंकित नहीं होते और आश्वस्त होकर उन्हें सरोवर के किनारे पर रखकर स्नान के लिए जल में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
यतः उत्तङ्क परीक्षितपुत्र जनमेजय के समकालीन थे, अतः वे द्वापरयुग में विद्यमान थे। हिन्दूमतानुसार सृष्टिकाल चार युगों में विभाजित किया गया है : सत्
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