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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २५५ महाभारत के आदिपर्व में महर्षि उत्तङ्क की कथा में नग्न क्षपणक का उल्लेख हुआ है। अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित युधिष्ठिर के बाद हस्तिनापुर के राजा बने। नागराज तक्षक के डसने से उनकी मृत्यु हो गई। परीक्षित के पुत्र जनमेजय पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सम्पूर्ण सर्पजाति का विनाश करने हेतु सर्पयज्ञ करते हैं। उसमें समस्त सर्प जला दिये जाते हैं, किन्तु आस्तिक ऋषि की कृपा से तक्षक के प्राण बच जाते हैं। इस यज्ञ के कारण ही वैशम्पायन ने जनमेजय को कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत की रोचक कथाएँ सुनाईं। जनमेजय ने भी ब्रह्महत्या के पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए उन कथाओं को ध्यान से सुना (आदिपर्व/ अध्याय १ / श्लोक ९-११/पृ.२)।
__उन कथाओं को वहाँ सूतकुलोत्पन्न लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा ने भी सुना। वे पुराणों के ज्ञाता और कथावाचक थे। वे नैमिषारण्य में महर्षि शौनक के द्वादशवर्षीय सत्र में आये। वहाँ एकत्र ऋषियों को उन्होंने महाभारत की कथा सुनाई (आदिपर्व। अध्याय १)। इसी क्रम में वे 'वेद' के शिष्य उत्तङ्क की गुरुभक्ति की कथा सुनाते हैं। उत्तङ्क ने ही जनमेजय को सर्पयज्ञ के लिए प्रोत्साहित किया था (आदिपर्व / अध्याय ३)। कथा इस प्रकार है
ब्रह्मर्षि उत्तङ्क अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा देने के लिए गुरुपत्नी की इच्छानुसार राजा पौष्य की महारानी के कुण्डलयुगल माँगने जाते हैं। महारानी दे देती है, किन्तु सावधान करती है कि इन कुण्डलों पर नागराज तक्षक की आँखें गड़ी हुई हैं, अतः आप सावधानी से लेकर जाना। उत्तङ्क 'अब मैं चलता हूँ' कहकर राजा से बिदा लेते हैं और कुण्डल लेकर चल पड़ते हैं। रास्ते में वे अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणक (दिगम्बरजैन मुनि) को देखते हैं, जो कभी दिखाई देता है, कभी अदृश्य हो जाता है। कुछ दूर जाकर उत्तंक एक सरोवर के किनारे कुण्डल रख देते हैं और स्नान के लिए जल में प्रविष्ट हो जाते हैं। तभी वह क्षपणक तेजी से आता है और दोनों कुण्डल लेकर भाग जाता है। उत्तंक स्नान-तर्पण कर उस क्षपणक का पीछा करते हैं और उसे पकड़ लेते हैं। पकड़े जाने पर वह क्षपणक का रूप त्याग देता है और अपना वास्तविक (तक्षकनाग का) रूप धारण कर पृथ्वी के बहुत बड़े बिल में घुस जाता है। मूल पाठ इस प्रकार है
"साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षणपकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च।
अथोतङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे। एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्।
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