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अ०४ / प्र० १
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २५३
M. Monier Williams : Sanskrit-English Dictionary, मनुस्मृति ५ / ६९, आप्टेकृत संस्कृत - हिन्दी कोश) तथा चुरादिगणी 'क्षप्' धातु का अर्थ है : फेंकना, त्यागना, नष्ट करना (to throw क्षपण = destroying, diminishing, suppressing, expelling— M. Monier williams : Sans.- Eng. Dictionary) अत: ' क्षपणक' शब्द संयमीतपस्वी एवं वस्त्रादि-सकलपरिग्रह- त्यागी दिगम्बरजैन मुनि का वाचक है। छठी शताब्दी ई० के दिगम्बर जैनाचार्य जोइन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश के निम्न दोहे में दिगम्बर जैन मुनि के लिए ' क्षपणक' शब्द का प्रयोग किया है
तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु । खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥
१/८२ ॥
अनुवाद – “मैं तरुण हूँ, वृद्ध हूँ, रूपवान् हूँ, शूर हूँ, पंडित हूँ, दिव्य हूँ, क्षपणक हूँ, बौद्ध हूँ और श्वेतपट (श्वेताम्बर) हूँ, इस प्रकार शरीर की समस्त अवस्थाओं को मूर्ख जीव अपनी अवस्थाएँ मानता है ।"
श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ( १२वीं शती ई०) ने अपने कोष में ' क्षपणक' शब्द को 'नग्न' का पर्यायवाची बतलाया है - " नग्नो विवाससि मागधे च क्षपणके ।'
'विशेषावश्यकभाष्य' के वृत्तिकार श्री हेमचन्द्रसूरि (१२वीं सदी ई०) ने भाष्य की २५८५वीं गाथा की वृत्ति में निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है, जिसमें दिगम्बरमुनि को नग्नक्षपणक कहा गया है
जारिसियं गुरुलिंगं सीसेण वि तारिसेण होयव्वं । न हि होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा ॥
अनुवाद - " जैसा गुरु का लिंग (वेश) होता है, वैसा ही शिष्य का भी होना चाहिए । बुद्ध का शिष्य श्वेतपटधारी अथवा नग्नक्षपण नहीं हो सकता । "
एक अन्य श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा में दश कुपाक्षिकों के नामों में एक 'क्षपणक' नाम भी बतलाया गया है—
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खवणय पुण्णिम खरयर पल्लविआ सङ्घपुण्णिमागमिआ । पडिमा मुणिअरि वीजा पासो पुण संपई दसमो ॥ ८ ॥
इसकी वृत्ति में ' क्षपणको दिगम्बरः' (प्रव. परी / १ / १ / ८ / पृ. १९) कहकर 'क्षपणक' शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है।
इसी ग्रन्थ की एक अन्य गाथा में कहा गया है कि क्षपणक स्त्रीमुक्ति का निषेध करनेवाले पुरुष को तीर्थंकर कहते हैं- "एवं खलु तित्थयरं इत्थीमुत्तिं निसेहगं खमणा"
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