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________________ २५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ की स्थिति ईस्वी के लगभग चार सौ वर्ष पहले मानी जाती है। ये दोनों ग्रन्थकार महाभारत के विस्तृतरूप से परिचित हैं, गीता को भगवान् के वचनरूप से जानते हैं, ययाति के उपाख्यान का निर्देश करते हैं। अतः स्पष्ट है कि मूल महाभारत की रचना इससे (४०० ई० पू० से) कम से कम दो सौ वर्ष पूर्व अवश्य हुई होगी। महाभारत बुद्ध के पहले की रचना है, परन्तु वर्तमान रूप उसे बुद्ध के पीछे प्राप्त हुआ, यही मानना न्यायसंगत है।"५ श्री बी० एन० लूनिया प्राचीन भारतीय संस्कृति में लिखते हैं-"मैक्डानल ने महाभारत का रचनाकाल ५०० ई० पू० और विन्टरनिट्ज ने ४०० ई० पू० माना है। श्री आर० जी० भण्डारकर का मत है कि ईस्वी पूर्व ५०० तक महाभारत एक प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ बन चुका था। --- महाभारत के मूलग्रन्थ में अनेक वीरगाथाओं, आख्यानों, धार्मिक तथा दार्शनिक विचारों और उपदेशों को सम्मिलित कर लिया गया। समयसमय पर उसमें अनेक प्रक्षेप जोड़ दिये गये। --- महाभारत के कुछ भागों में भारत में रहनेवाली विदेशी जातियों यूनानी, शक, पह्लव आदि का उल्लेख है। ये जातियाँ भारत में ईस्वी पूर्व पहली और दूसरी शताब्दी में आयीं। इससे प्रकट होता है कि ईसापूर्व की प्रारंभिक सदियों में महाभारत के महाकाव्य में परिवर्तन और परिवर्धन हो गये थे। ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में, पतञ्जलिकृत 'महाभाष्य' ग्रन्थ के समय में, महाभारत का वर्तमानरूप सर्वविदित था। महाभारत में विष्णु और शैवमतों का विशद विवरण है और ये मत ईसा के बाद की प्रारंभिक सदियों में खूब प्रचलित थे। गुप्तकाल में तो ये अपनी प्रगति के शिखर पर थे। भारत में और भारत के बाहर कम्बोडिया में पाँचवी और छठी शताब्दियों के शिलालेखों में महाभारत का धार्मिक ग्रन्थ के रूप में उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि ईसवी सन् की पाँचवी शताब्दी के पूर्व ही महाभारत का परिवर्तन और परिवर्द्धन सम्पूर्ण हो चुका था और उसका वह रूप निर्दिष्ट हो चुका था जो आज हमारे सम्मुख प्रस्तुत है। डॉक्टर राधाकुमुद मुकर्जी का मत है कि महाभारत का यह परिवर्द्धित रूप ईसापूर्व की दूसरी शताब्दी तक पूर्ण हो चुका था। अन्य विद्वान् इसे ईस्वी सन् के ३०० वर्ष पूर्व से १०० वर्ष पूर्व के युग में मानते हैं।"६ निष्कर्ष यह कि 'महाभारत' ई० पू० ५०० से ई० पू० १०० के बीच की रचना है। इसमें दिगम्बरजैन मुनि का वर्णन है। प्राचीनकाल में दिगम्बरजैन मुनि 'क्षपणक' नाम से प्रसिद्ध थे। 'क्षपणक' शब्द भ्वादिगण एवं चुरादिगण की 'क्षप्' धातु में 'ल्युट' एवं स्वार्थिक 'कन्' प्रत्ययों के योग से निष्पन्न है। भ्वादिगणी 'क्षप्' धातु का अर्थ है : संयम, तप, उपवास करना (क्षप् = to be abstinent, fast, do penance ५. बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास / पृ. ८३-८४। ६. बी. एन. लूनिया : प्राचीन भारतीय संस्कृति/ पृ. १५७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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