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अ०४/प्र०१
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २५१ बृहदारण्यकोपनिषद् जो बहुत प्राचीन है, उसमें भी श्रमणों का उल्लेख है"श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसः।"(४/३/२२)। अतः यास्क का श्रमणों से परिचित होना स्वाभाविक है।
श्रीमद्भागवतपुराण में भी श्रमणों को 'वातरशन' (वायु की रशना अर्थात् कौपीन धारण करनेवाला) कहा गया है-"श्रमणा वातरशना आध्यात्मविद्या विशारदाः।" (११/२/२०)।
महाभारत (५००-१०० ई० पू०) में नग्न क्षपणक सुप्रसिद्ध संस्कृतसाहित्य-इतिहासकार बलदेव उपाध्याय 'महाभारत' की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं
"आजकल महाभारत में एक लाख श्लोक मिलते हैं, इसलिए इसे 'शतसाहस्रीसंहिता' कहते हैं। इसका यह स्वरूप कम से कम डेढ़ हजार वर्ष से अवश्य है, क्योंकि गुप्तकालीन शिलालेख में यह 'शतसाहस्री संहिता' के नाम से उल्लिखित हुआ है। विद्वानों का कहना है कि महाभारत का वह रूप अनेक शताब्दियों में विकसित हुआ। बहुत प्राचीनकाल से अनेक गाथाएँ तथा आख्यान इस देश में प्रचलित थे, जिनमें कौरवों तथा पाण्डवों की वीरता का वर्णन किया गया था। अथर्ववेद में परीक्षित का आख्यान उपलब्ध होता है। अन्य वैदिक ग्रन्थों में यत्र-तत्र महाभारत के वीर पुरुषों की गाथाएँ उल्लिखित मिलती हैं। इन्हीं सब गाथाओं और आख्यानों को एकत्र कर महर्षि वेदव्यास ने जिस काव्य का रूप दिया है वही आजकल का सुप्रसिद्ध महाभारत है।"४
"४४५ ई० (५०२ वि०) के एक शिलालेख में महाभारत का निर्देश इस प्रकार है-'शतसाहत्यां संहितायां वेदव्यासेनोक्तम्।' इससे प्रतीत होता है कि इससे कम से कम २०० वर्ष पहले इसका अस्तित्व अवश्य होगा। कनिष्क के सभापण्डित अश्वघोष ने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के श्लोक तथा स्वयं महाभारत के भी कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। अश्वघोष का समय ई० सन् की प्रथम शताब्दी है। अतः उस समय यह ग्रन्थ हरिवंश के साथ लक्षश्लोकात्मक था, इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता। आश्वलायन गृह्यसूत्र (३/४/४) में भारत तथा महाभारत का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया गया है। बौधायन के गृह्यसूत्र में 'विष्णुसहस्रनाम' का स्पष्ट उल्लेख है तथा भगवद्गीता का एक श्लोक प्रमाणरूप से उद्धृत किया गया है। इन दोनों ग्रन्थकारों
४. बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास /पृ. ८१-८२।
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