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२५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०१ किया-"किस विद्या से आप अन्तर्हित हो जाते हैं?" वातरशन मुनियों ने उन्हें अपने अध्यात्मधाम से आए हुए अतिथि जानकर कहा-“हे मुनिजनो! आपको नमस्कार। हम आपकी सपर्या (सत्कार) किससे करें?" ऋषियों ने कहा-"हमें पवित्र आत्मविद्या का उपदेश दीजिये, जिससे हम निष्पाप हो जायँ।"
दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण में इन्द्र द्वारा एक हजार नामों से भगवान् आदिनाथ की स्तुति की गई है, जिनमें एक नाम 'वातरशन' है, जो दिगम्बर, निरम्बर और निर्ग्रन्थ का पर्यायवाची है-"दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बरः।" (आदिपुराण /२५/२०४)।
निघण्टु (८०० ई० पू०) में श्रमण, दिगम्बर, वातवसन
शब्दसूची, विशेषरूप से वैदिक शब्दसूची को निघण्टु कहते हैं। इसकी व्याख्या महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में की है। इससे स्पष्ट है कि निघण्टु यास्क-विरचित 'निरुक्त' से प्राचीन है। "यास्क पाणिनी से प्राचीन हैं। महाभारत के शान्तिपर्व (अध्याय ३४२) में यास्क के निरुक्तकार होने का स्पष्ट निर्देश है
__ स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः।
यत्प्रसादादधो नष्टं निरुक्तमभिजग्मवान्॥ ७३॥ इस उल्लेख के आधार पर भी हम यास्क को विक्रम से सात-आठ सौ वर्ष पूर्व मानने के लिए बाध्य होते हैं।"२
अतः 'निघंटु' का रचनाकाल इससे भी पूर्व का है। वाल्मीकि रामायण (५०० ई०पू०) में कहा गया है कि राजा दशरथ के यज्ञ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, तापस और श्रमण आहार ग्रहण करते थे
ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते।
तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते॥ १४/१२॥ उक्त रामायण की भूषणटीका में 'निघंटु' को उद्धृत करते हुए 'श्रमण' शब्द का अर्थ 'दिगम्बर' और वातवसन (वायु ही है वस्त्र जिसका) बतलाया गया है, यथा-"श्रमणा दिगम्बरा श्रमणा वातवसना इति निघण्टुः।"३
निघण्टु का यह उद्धरण इस बात का साक्षी है कि ईसा से ८०० वर्ष पहले दिगम्बरजैन मुनियों का अस्तित्व था। २. आचार्य बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और संस्कृति / पृ. ३५९ । ३. पं० अजित कुमार शास्त्री : श्वेताम्बर मत सीमाक्षा / पृ.१७४ ।
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