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अ० ४ / प्र० १
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २४९
करते, तथापि धर्म में श्रद्धा रखते हैं, वे अविरत सम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं । इसी प्रकार के व्रतधारी 'व्रात्य' कहे गये प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे हिंसात्मक यज्ञविधियों के नियम से त्यागी होते हैं। इसीलिये उपनिषदों में कहीं-कहीं उनकी बड़ी प्रशंसा भी पाई जाती है, जैसे प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है - ' व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षिरत्ता विश्वस्य सत्पति: ' (२/११) । शांकरभाष्य में व्रात्य का अर्थ 'स्वभावत एव शुद्ध इत्यभिप्रायः' किया गया है। इस प्रकार श्रमण-साधनाओं की परम्परा हमें नाना प्रकार के स्पष्ट व अस्पष्ट उल्लेखों द्वारा ऋग्वेद आदि समस्त वैदिक साहित्य में दृष्टिगोचर होती है ।" (भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान / पृ. १८ - १९)।
इस प्रकार कम से कम १५०० वर्ष ई० पू० में रचित ऋग्वेद में मुनयो वातरशनाः (वायुरूप वस्त्रधारी मुनि) शिश्नदेवाः (नग्नदेव के अनुयायी), यतियों एवं व्रात्यों के उल्लेखों से सिद्ध है कि दिगम्बरजैन मुनि १५०० वर्ष ई० पू० में विद्यमान थे और वातरशन मुनि शब्द दिगम्बर जैन मुनियों का ही वाचक था, यह छठी शताब्दी ई० के श्रीमद्भागवतपुराण एवं जैनाचार्य जिनसेनकृत 'आदिपुराण' (देखिए, अगला शीर्षक ३) के विवरणों से प्रमाणित है ।
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तैत्तिरीयारण्यक में वातरशन श्रमण
तैत्तिरीय आरण्यक में भी वातरशन श्रमणों का कथन है। उससे ज्ञात होता है कि ऋषियों को जब आत्मविद्या की जिज्ञासा होती थी, तब वे वातरशन श्रमणों के पास जाकर उसका उपदेश प्राप्त करते थे । तैत्तिरीय आरण्यक का निम्नलिखित वक्तव्य इसी तथ्य पर प्रकाश डालता है—
" वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुस्तानृषयोऽर्थमायंस्तेऽनिलायमचरंस्तेऽनुप्रविशुः कूष्माण्डानि तांस्तेष्वन्वविन्दन श्रद्धयाच तपसा च । तानृषयोऽब्रुवन् कया निलायं चरथेति ते ऋषीनब्रुवन्नमो वोऽस्तु भगवन्तोऽस्मिन् धाम्नि केन वः सपर्यामेति तानृषयोऽब्रुवन् पवित्रं नो ब्रूत येनोरेपसः स्यामेति त एतानि सूक्तान्यपश्यन् ।' [1"?
अनुवाद - " वातरशन - श्रमण - ऋषि ऊर्ध्वमन्थी (परमात्मपद की ओर उत्क्रमण करने वाले) हुए। उनके समीप इतर ऋषि प्रयोजनवश ( याचनार्थ) उपस्थित हुए । उन्हें देखकर वातरशन कूष्माण्डनामक मन्त्रवाक्यों में अन्तर्हित हो गये, तब उन्हें अन्य ऋषियों ने श्रद्धा और तप से प्राप्त कर लिया। ऋषियों ने उन वातरशन मुनियों से प्रश्न
१. तैत्तिरीय आरण्यक २ / प्रपाठक ७ / अनुवाक १ - २ ( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड ४ / विद्यानन्द मुनि : आद्य मिताक्षर / पा.टि./ पृ. ७)।
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