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________________ २४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र० १ पूजते हैं।" (जै. सा. इ/ पू.पी. / पृ. १०४) । यह दूसरा अर्थ ही युक्तिसंगत और इतिहास सम्मत है। २ अथर्ववेद एवं ब्राह्मणग्रन्थों में यति और व्रात्य " ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियों का भी उल्लेख बहुतायत से आया है। ये यति भी ब्राह्मणपरम्परा के न होकर श्रमणपरम्परा के ही साधु सिद्ध होते हैं, जिनके लिये यह संज्ञा समस्त जैनसाहित्य में उपयुक्त होते हुए आज तक भी प्रचलित है। यद्यपि आदि में ऋषियों, मुनियों और यतियों के बीच ढारमेल पाया जाता है और वे समान रूप से पूज्य माने जाते थे, किन्तु कुछ (समय) ही पश्चात् यतियों के प्रति वैदिक परम्परा में महान् रोष उत्पन्न होने के प्रमाण हमें ब्राह्मणग्रंथों में मिलते हैं, जहाँ इन्द्र द्वारा यतियों को शालावृकों (शृगालों व कुत्तों) द्वारा नुचवाये जाने का उल्लेख मिलता है । (तैत्तिरीयसंहिता / २, ४,९, २, ६, २, ७, ५ ताण्ड्यब्राह्मण / १४, २, २८; १८, १,९)। किन्तु इन्द्र के इस कार्य को देवों ने उचित नहीं समझा और उन्होंने इसके लिये इन्द्र का बहिष्कार भी किया (ऐतरेय ब्राह्मण ७,२८) । ताण्ड्यब्राह्मण के टीकाकारों ने यतियों का अर्थ किया है 'वेदविरुद्ध नियमोपेत, कर्मविरोधिजन, ज्योतिष्टोमादि अकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमान' आदि, इन विशेषणों से उनकी श्रमण परम्परा स्पष्ट प्रमाणित हो जाती है। भगवद्गीता में ऋषियों, मुनियों और यतियों का स्वरूप भी बतलाया है और उन्हें समानरूप से योगप्रवृत माना । यहाँ मुनि को इन्द्रिय और मन का संयम करनेवाला, इच्छा, भय व क्रोधरहित मोक्षपरायण व सदा मुक्त के समान माना है (भ.गी. ५ / १८) और यति को काम-क्रोध-रहित, संयत-चित्त व वीतराग कहा है (भ.गी. ५/२६, ८/ ११ आदि) । अथर्ववेद के १५ वें अध्याय में व्रात्यों का वर्णन आया है। सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण व लाट्यायन, कात्यायन व आपस्तंबीय श्रौतसूत्रों में व्रात्यस्तोमविधि द्वारा उन्हें शुद्ध कर वैदिकपरम्परा में सम्मिलित करने का भी वर्णन है। ये व्रात्य वैदिकविधि से 'अदीक्षित व संस्कारहीन' थे। अदुरुक्त वाक्य को दुरुक्तरीति से, (वैदिक व संस्कृत नहीं, किन्तु अपने समय की प्राकृत भाषा ) बोलते थे, वे 'ज्याहृद' (प्रत्यंचारहित धनुष) धारण करते थे । मनुस्मृति (१० वें अध्याय) में लिच्छवि, नाथ, मल आदि क्षत्रिय जातियों को व्रात्यों में गिनाया है । इन सब उल्लेखों पर सूक्ष्मता से विचार करने से इसमें सन्देह नहीं रहता कि ये व्रात्य भी श्रमणपरम्परा के साधु व गृहस्थ थे, जो वेद - विरोधी होने से वैदिक अनुयायियों के कोप- भाजन हुए हैं। जैनधर्म के मुख्य पाँच अहिंसादि नियमों को व्रत कहा है। उन्हें ग्रहण करनेवाले श्रावक देशविरत या अणुव्रती और मुनि महाव्रती कहलाते हैं। जो विधिवत् व्रत ग्रहण नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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