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२४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४ / प्र० १
उनके समझने-समझाने में बहुत सुधार की आवश्यकता है। मुझे आशा है कि केशी, वृषभ या ऋषभ तथा वातरशन मुनियों के वेदान्तर्गत समस्त उल्लेखों के सूक्ष्म अध्ययन से इस विषय के रहस्य का पूर्णतः उद्घाटन हो सकेगा। क्या ऋग्वेद (४/५८/३) के 'त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्यानाविवेश' का यह अर्थ नहीं हो सकता कि त्रिधा (ज्ञान, दर्शन और चारित्र से) अनुबद्ध वृषभ ने धर्म - घोषणा की और वे एक महान् देव के रूप में मयों में प्रविष्ट हुए? इसी संबंध में ऋग्वेद के शिश्नदेवों (नग्न देवों) वाले उल्लेख भी ध्यान देने योग्य हैं (ऋ० वे० / ७ / २१ / ५ / एवं १० / ९९ / ३)। इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशन मुनियों के निर्ग्रन्थ साधुओं तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभदेव के साथ एकीकरण हो जाने से जैनधर्म की प्राचीन परम्परा पर बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों के बीच बहुत मतभेद है। कितने ही विद्वानों ने उन्हें ई० सन् से ५००० वर्ष व उससे भी अधिक पूर्व रचा गया माना है। किन्तु आधुनिक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का बहुमत यह है कि वेदों की रचना उसके वर्तमानरूप में ई० पूर्व सन् १५०० के लगभग हुई होगी। चारों वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है। अत एव ऋग्वेद की ऋचाओं में ही वातरशन मुनियों तथा 'केशी ऋषभदेव' का उल्लेख होने से जैनधर्म को अपने प्राचीन रूप में ई० पूर्व सन् १५०० में प्रचलित मानना अनुचित न होगा । 'केशी' नाम जैनपरम्परा में प्रचलित रहा, इसका प्रमाण यह है कि महावीर के समय में पार्श्व-सम्प्रदाय के नेता का नाम केशीकुमार था । ( उत्तरा . १३) ।
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'उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यता व साधनाएँ वैदिक ऋचा में भी उल्लिखित हैं, उन पर से हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से स्पष्टतः पृथक् रूप से समझ सकते हैं। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं थे जैसे ये वातरशना मुनि थे । वे ऋषि स्वयं गृहस्थ हैं, यज्ञसम्बन्धी विधिविधान में आस्था रखते हैं और अपनी इहलौकिक इच्छाओं जैसे पुत्र, धन, धान्य आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए इन्द्रादि देवी-देवताओं का आह्वान करते-कराते हैं, तथा इसके उपलक्ष्य में यजमानों से धनसम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं । किन्तु इसके विपरीत वातरशन मुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते । समस्त गृह- द्वार, स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि परिग्रह, यहाँ तक कि वस्त्र का भी परित्याग कर, भिक्षावृत्ति से रहते हैं। शरीर का स्नानादि संस्कार न कर मलधारण किये रहते हैं । मौनवृत्ति से रहते हैं, तथा अन्य देवी-देवताओं के आराधन से मुक्त आत्मध्यान में ही अपना कल्याण समझते हैं। स्पष्टतः यह उस श्रमणपरम्परा का प्राचीन रूप है, जो आगे चलकर अनेक अवैदिक सम्प्रदायों के रूप में प्रगट हुई और जिनमें से दो अर्थात् जैन और बौद्ध सम्प्रदाय आज तक भी विद्यमान हैं। प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य, वैदिक, बौद्ध व जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण
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