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________________ २४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ वातरशन मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं, जिनकी साधना में मलधारणा, मौनवृत्ति और उन्माद भाव का विशेष उल्लेख है। सूक्त में आगे उन्हें ही 'मुनिर्देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः' (ऋ.वे. /१०/१३६/४) अर्थात् देवदेवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा कहा है। वातरशन शब्द में और मलरूपी वसनधारण करने में उनकी नाग्न्यवृत्ति का भी संकेत हैं। इसकी भागवतपुराण में ऋषभ के वर्णन से तुलना कीजिये "उर्वरितशरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज। जडान्धमूकबधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव। --- परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारोऽवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत इवादृश्यत।" (भा.पु./५ / ५/२८,२९-३१/पृ.२११)। "अर्थात् ऋषभ भगवान् के शरीरमात्र परिग्रह बच रहा था। वे उन्मत्त के समान दिगम्बरवेशधारी, बिखरे हुए केशों-सहित आहवनीय अग्नि को अपने में धारण करके ब्रह्मावर्त देश से प्रव्रजित हुए। वे जड़, अन्ध, मूक, बधिर, पिशाचोन्मादयुक्त जैसे अवधूतवेष में लोगों के बुलाने पर भी मौनवृत्ति धारण किए हुए चुप रहते थे। --- सब ओर लटकते हुए अपने कुटिल, जटिल, कपिश केशों के भारसहित अवधूत और मलिन शरीरसहित वे ऐसे दिखाई देते थे, जैसे मानों उन्हें भूत लगा हो। "यथार्थतः यदि ऋग्वेद के उक्त केशीसंबंधी सूक्त को, तथा भागवतपुराण में वर्णित ऋषभदेव के चरित्र को सन्मुख रखकर पढ़ा जाय, तो पुराण में वेद के सूक्त का विस्तृत भाष्य किया गया सा प्रतीत होता है। वही वातरशन या गगनपरिधानवृत्ति केश-धारण, कपिश वर्ण, मलधारण, मौन और उन्मादभाव समान रूप से दोनों में वर्णित हैं। ऋषभ भगवान् के कुटिल केशों की परम्परा जैन मूर्तिकला में प्राचीनतम काल से आज तक अक्षुण्ण पाई जाती है। यथार्थतः समस्त तीर्थंकरों में केवल ऋषभ की ही मूर्तियों के सिर पर कुटिल केशों का रूप दिखलाया जाता है, और वही उनका प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है। इस संबंध में मुझे केशरियानाथ का स्मरण आता है, जो ऋषभनाथ का ही नामान्तर है। केसर, केश और जटा एक ही अर्थ के वाचक हैं 'सटा जटाकेसरयोः'। (विश्वलोचनकोश / टान्सवर्ग/३०)। सिंह भी अपने केशों के कारण केसरी कहलाता है। इस प्रकार केशी और केसरी एक ही केशरियानाथ या ऋषभनाथ के वाचक प्रतीत होते हैं। केशरियानाथ पर जो केशर च की विशेष मान्यता प्रचलित है, वह नामसाम्य के कारण उत्पन्न हुई प्रतीत होती है। जैन पुराणों में भी ऋषभ की जटाओं का सदैव उल्लेख किया गया है। पद्मपुराण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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