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________________ अ०४/प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २४३ मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला। वातस्यानु धाजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥ उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम्। शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ॥ (ऋग्वेद । १०/१३६/२-३)। "विद्वानों के नाना प्रयत्न होने पर भी अभी तक वेदों का निस्संदेहरूप से अर्थ बैठाना संभव नहीं हो सका है। तथापि सायणभाष्य की सहायता से मैं उक्त ऋचाओं का अर्थ इस प्रकार करता हूँ-अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशन मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट आनन्दसहित) वायुभाव (अशरीरी ध्यानवृत्ति) को प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीरमात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यंतर स्वरूप को नहीं (ऐसा वे वातरशन मुनि प्रकट करते हैं)। "ऋग्वेद में उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की स्तुति की गई है केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वर्दूशे केशीदं ज्योतिरुच्यते॥ (१०/१३६/१)। "केशी अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है। "केशी की यह स्तुति उक्त वातरशन मुनियों के वर्णन आदि में की गई है, जिससे प्रतीत होता है कि केशी वातरशन मुनियों के वर्णन के प्रधान थे। "ऋग्वेद के इन केशी व वातरशन मुनियों की साधनाओं की भागवतपुराण में उल्लिखित वातरशन श्रमण ऋषि, उनके अधिनायक ऋषभ और उनकी साधनाओं की तुलना करने योग्य है। ऋग्वेद के वातरशन मुनि और भागवत के 'वातरशन श्रमण ऋषि' एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं, इसमें तो किसी को किसी प्रकार का सन्देह होने का अवकाश नहीं दिखाई देता है। केशी का अर्थ केशधारी होता है, जिसका अर्थ सायणाचार्य ने 'केशस्थानीय रश्मियों को धारण करनेवाले' किया है, और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है। किन्तु उसकी कोई सार्थकता व संगति वातरशन मुनियों के साथ नहीं बैठती, जिनकी साधनाओं का उस सूक्त में वर्णन है। केशी स्पष्टतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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