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________________ २४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०१ है। जैसे वे जैनियों के आदि तीर्थंकर हैं, उसी प्रकार वे हिन्दुओं के लिए साक्षात् भगवान् विष्णु के अवतार हैं। उनके ईश्वरावतार होने की मान्यता प्राचीनकाल में इतनी बद्धमूल हो गयी थी कि शिवमहापुराण में भी उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिनाया गया है (शिवमहापुराण / ७ / २/९)। दूसरी बात यह है कि प्राचीनता में यह अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है। इस अवतार का जो हेतु भागवतपुराण में बतलाया गया है उससे श्रमणधर्म की परम्परा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से निःसन्देहरूप से जुड़ जाती है। ऋषभावतार का हेतु वातरशन श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना बतलाया गया है। भागवतपुराण में यह भी कहा गया है कि-'अयमवतारो रजसोपप्लुत-कैवल्योपशिक्षणार्थः' (भा.पु./५ / ६/१२)। "अर्थात् भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण (मलधारण) वृत्ति द्वारा कैवल्यप्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था। जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, मलपरीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे। बुद्ध भगवान् ने श्रमणों की आचार-प्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था "नाहं भिक्खवे संघाटिकस्य संघाटिधारणमत्तेन सामनं वदामि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्य रजोजल्लिकमत्तेन --- जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामनं वदामि।" (मज्झिमनिकाय/४०)। "अर्थात् हे भिक्षुओ! मैं संघाटिक के संघाटी-धारणमात्र से श्रामण्य नहीं कहता, अचेलक के अचेलकत्वमात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिकत्व-मात्र से और जटिलक के जटाधारण-मात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता। "अब प्रश्न यह होता है कि जिन वातरशन मुनियों के धर्मों की स्थापना करने तथा रजोजल्लिक वृत्ति द्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखलाने के लिये भगवान् ऋषभदेव का अवतार हुआ था, वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं। इसके लिये जब हम भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों को देखते हैं, तो हमें वहाँ भी वातरशन मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में दिखाई देता है। __"ऋग्वेद की वातरशन मुनियों के संबंध की ऋचाओं में उन मुनियों की साधनाएँ ध्यान देने योग्य हैं। एक सूक्त की कुछ ऋचाएँ देखिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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