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________________ अ०४ / प्र०१ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / २४१ डालते हुए डॉ० हीरालाल जी जैन भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान नामक ग्रन्थ में लिखते हैं __ "भागवतपुराण के पाँचवें स्कंध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृतान्त वर्णित है, जो सभी मुख्य-मुख्य बातों में जैन पुराणों से मिलता है। उनके माता-पिता के नाम नाभि और मरुदेवी पाये जाते हैं, तथा उन्हें स्वयंभू मनु की पाँचवी पीढ़ी में इस क्रम से हुए कहा गया है-स्वयंभूमनु , प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि और ऋषभ। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर संन्यास ग्रहण किया। वे नग्न रहने लगे और केवल शरीरमात्र ही उनके पास था। लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली-गलौच किये जाने व मारे जाने पर भी वे मौन ही रहते थे। अपने कठोर तपश्चरण द्वारा उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की, तथा दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया। वे कुटकाचल पर्वत के वन में उन्मत्त की नाईं नग्नरूप में विचरने लगे। बाँसों की रगड़ से वन में आग लग गई और उसी में उन्होंने अपने को भस्म कर डाला। "भागवतपुराण में यह भी कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कोंक, बैक व कुटक का राजा अर्हन् कलयुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का संप्रवर्तन करेगा, इत्यादि। इस वर्णन से इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि भागवतपुराण का तात्पर्य जैन पुराणों के ऋषभ तीर्थंकर से ही है, और अर्हन् राजा द्वारा प्रवर्तित धर्म का अभिप्राय जैनधर्म से। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि भागवतपुराण तथा वैदिक परम्परा के अन्य प्राचीन ग्रन्थों में ऋषभदेव के संबंध की बातों की कुछ गहराई से जाँच-पड़ताल की जाय। भागवतपुराण में कहा गया है कि___ "बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त! भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार।" (भा.पु./५/३/२०)। "हे विष्णुदत्त पारीक्षित! यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर स्वयं श्री भगवान् (विष्णु) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर से (शुक्लया तन्वा) अवतार वातरशन श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।" "भागवतपुराण के इस कथन में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनका भगवान् ऋषभदेव के भारतीय संस्कृति में स्थान तथा उनकी प्राचीनता और साहित्यिक परंपरा से बड़ा घनिष्ठ और महत्त्वपूर्ण संबंध है। एक तो यह कि ऋषभदेव की मान्यता और पूज्यता के संबंध में जैन और हिन्दुओं के बीच कोई मतभेद नहीं 12120)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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