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२३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/ प्र०३ पर्वत पर क्यों जायेगा? इच्छित वस्तु यदि बिना प्रयत्न के ही मिल जाय, तो प्रयत्न करने की मूर्खता कौन समझदार आदमी करेगा?" दिगम्बराचार्य पात्रकेसरी ने कितनी युक्तिसंगत बात कही है
जिनवर ! न ते मतं पटकवस्त्रपात्रग्रहो विमृश्य सुखकारणं • स्वयमशक्तकैः कल्पितः। अथायमपि सत्पथस्तव भवेद् वृथा नग्नता न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते॥ ४१॥
पात्रकेसरीस्तोत्र। अनुवाद-"हे जिनवर! वस्त्रधारण करना और भिक्षा के लिए पात्र ग्रहण करना, आपके मत में मान्य नहीं है। ये बातें तो अशक्त लोगों ने सुख का कारण समझकर स्वयं ही कल्पित कर ली हैं। यदि वस्त्रपात्र ग्रहण करना भी आपके मत में मोक्षमार्ग होता, तो नग्नता व्यर्थ हो जाती, क्योंकि जब फल को हाथ से ही तोड़ना सम्भव हो, तब वृक्ष पर कौन चढ़ेगा?"
__श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा के कर्ता उपाध्याय धर्मसागर जी बोटिक शिवभूति द्वारा स्त्रीमुक्ति का निषेध किये जाने का कारण बतलाते हुए लिखते हैं कि वह जिनकल्प को ही एकमात्र मुक्ति का मार्ग मानता था, अतः उसने नग्नत्व स्वीकार कर लिया, किन्तु अपनी बहिन उत्तरा को नग्न रहने से मना कर दिया, क्योंकि स्त्रियों का नग्न रहना अच्छा नहीं लगता। उसने स्त्रियों के वस्त्रावृत रहने को ही उचित बतलाया। अब यदि वह सवस्त्र स्त्रियों की मुक्ति का प्रतिपादन करता, तो मुक्ति की दृष्टि से सवस्त्र और निर्वस्त्र में कोई भेद न रहता, तब उसका स्वयं का नग्न रहना केवल कष्ट का ही कारण सिद्ध होता। अतः उसने स्त्रीमुक्ति का निषेध कर दिया।"७६
___इस प्रकार श्वेताम्बर मनीषियों ने भी माना है कि सवस्त्रता से मुक्ति संभव होने पर निर्वस्त्र रहना मात्र एक अर्थहीन कष्टकारक कार्य है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब वस्त्रधारी साधारण स्त्रीपुरुष भी मुक्त हो सकते हैं, तब तीर्थंकरों एवं जिनकल्पिकों के लिए वस्त्रत्याग आवश्यक मानना युक्तिसंगत नहीं है। यह युक्तिसंगत तभी हो सकता है, जब वस्त्रधारण करने से तीर्थंकरों एवं जिनकल्पिकों की मुक्ति संभव न हो। और इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि तीर्थंकर और जिनकल्पिक साधारण पुरुषों से इतने गये-बीते (हीन) नहीं हैं, कि जिसमार्ग से साधारण स्त्रीपुरुषों की मुक्ति हो सकती हो, उससे तीर्थंकरों और जिनकल्पिकों की मुक्ति न हो। अतः इस बात
७६. प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / पातनिका /१/२/१९/ पृ.८२ ।
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