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अ० ३ / प्र० ३
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २३३
यहाँ लौकिक वैद्य का दृष्टान्त आध्यात्मिक वैद्य से मेल नहीं खाता । लौकिक वैद्य की वेशभूषा किसी रोग की औषधि नहीं है, किन्तु तीर्थंकररूप आध्यात्मिक वैद्य का नग्नवेश कर्मरूप आध्यात्मिक रोग की औषधि है । उस औषधि से तीर्थंकरों ने स्वयं अपना कर्मरोग विनष्ट किया था, अतः अपना रोग विनष्ट करने के बाद जब
आध्यात्मिक वैद्य बने, तब उसी कर्मरोग से ग्रस्त अन्य जीवों को उन्होंने उसी नाग्न्यलिंगरूप औषधि के सेवन का उपदेश दिया। इसके अलावा वे और कोई औषधि बतला ही नहीं सकते थे, क्योंकि उस रोग की और कोई औषधि है ही नहीं । इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को ही मोक्षमार्ग कहा गया है तथा शीतादि परीषहों के साथ नाग्न्यपरीषह के जय का उपदेश दिया गया है।
शिवभूति को नाग्न्यलिंग ग्रहण करने का निषेध करते हुए आर्यकृष्ण कहते हैं कि जिनकल्प तुम जैसे रथ्यापुरुषों (साधारण आदमियों) के लिए नहीं हैं । ७५ मैं इसके साथ यह वाक्य जोड़ना चाहता हूँ कि " इसीलिए मोक्ष भी रथ्यापुरुषों के लिए नहीं है ।"
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सवस्त्रमुक्ति संभव होने पर निर्वस्त्रता केवल क्लेश का कारण
अचेल जिनकल्प और सचेल स्थविरकल्प इन परस्पर विरुद्ध दो मोक्षमार्गों की मान्यता को जन्म देनेवाले आचार्यों ने यह विचार नहीं किया कि इससे जिनेन्द्रदेव का उपदेश कितना अयुक्तियुक्त हो जायेगा ! जब वस्त्रधारण करते हुए भी मोक्ष हो सकता है, तब नग्न रहकर शीत, उष्ण, दंशमशक आदि के घोर कष्ट उत्पन्न करनेवाले जिनकल्प का उपदेश देना कहाँ तक युक्तियुक्त कहा जा सकता है? निरर्थक कष्ट उठाने का उपदेश क्या तीर्थंकर जैसे परमविवेकशील सर्वज्ञ आत्मा के अनुरूप कहा जा सकता है? यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि मनुष्य किसी भी कार्य को करने के लिए सदा ऐसा रास्ता ढूँढ़ता है, जिसमें कम से कम कष्ट हो । जब सरल मार्ग से कार्य सिद्ध हो सकता है, तब कोई कठिन मार्ग क्यों अपनायेगा? निरर्थक कष्ट उठानेवाला मनुष्य विवेकशील नहीं कहा जा सकता। कहावत भी हैअर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत् । इष्टास्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेत् ॥
अनुवाद - " यदि मार्ग के मदार (आक) वृक्ष में ही मधु मिल जाय, तो कोई
७५. “न रथ्यापुरुषकल्पानां भवादृशां जिनकल्पस्तीर्थकरैरनुज्ञात इति ।" हेम वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५९२ ।
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