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२३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०३ होते हैं। वह किसी के साथ पक्षपात या रियायत नहीं करता। जीव के भावों और कर्मपुद्गलों के आस्रव-बन्ध तथा संवर-निर्जरारूप परिणामों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जिसके भी मन में वस्त्रपात्रादि परद्रव्यों को पाने की इच्छा अर्थात् राग उत्पन्न होगा उसके साथ कर्मपुद्गलों का आकर संश्लिष्ट होना अनिवार्य है और जिसके मन से राग विसर्जित हो जायेगा, उससे पुद्गलकर्मों का विश्लिष्ट होना नियत है। जड़ पुद्गलकर्मों में यह विचार करने की शक्ति नहीं होती कि यह जीव उत्तमसंहननवाला है, इसलिए इसे अपने बन्धन में बाँध लूँ , और यह जीव हीनसंहननवाला है, इसलिए इसे माफ कर दूँ।
तत्त्वार्थसूत्र में उत्तमसंहननवालों और हीनसंहननवालों के लिए अथवा तीर्थंकरों और साधारण पुरुषों के लिए बन्ध और मोक्ष की अलग-अलग व्यवस्थाएँ नहीं हैं। उसमें जीवमात्र के लिए एक ही व्यवस्था है। जैसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र को सभी जीवों के लिए ऐकान्तिकरूप से बन्ध का कारण बतलाया गया है और सम्यग्दर्शनज्ञान-चरित्र को निरपवादरूप से मोक्ष का। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग सभी जीवों की दृष्टि से आस्रव के हेतु कहे गये हैं और सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप सभी जीवों की अपेक्षा संवर और निर्जरा के हेतु। संवर एवं निर्जरा के इन हेतुओं में किसी अपवाद का विधान नहीं है। वस्त्रपात्रादि के परिग्रह से सभी के परिणाम याचना, मूर्छा, रागद्वेष, भय, संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान तथा देहसुख की लालसा से विकृत हो जाते हैं तथा सभी को वह परीषहजय एवं तप में असमर्थ बना देता है। अतः उत्तमसंहननधारी
और हीनसंहननधारी तथा तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध करनेवाले और न करनेवाले, दोनों प्रकार के साधकों के लिए मोक्षमार्ग एक ही प्रकार का है। फलस्वरूप यदि वस्त्रपात्रादि का परिग्रह तीर्थंकरों एवं अन्य प्रथम संहननधारियों (जिनकल्पिकों) के लिए मोक्ष में बाधक है, तो हीनसंहननधारियों (स्थविरकल्पिकों) के लिए भी उसका मोक्ष में बाधक होना अनिवार्य है।
लौकिक वैद्य और आध्यात्मिक वैद्य में समानता नहीं विशेषावश्यकभाष्य में साधारण पुरुषों के लिए जिनकल्प का निषेध करने हेतु वैद्य का दृष्टान्त दिया गया है। कहा गया है कि जैसे वैद्य के द्वारा उपदिष्ट औषधि के सेवन से ही रोगी का रोग दूर होता है, वैद्य की वेशभूषा के अनुकरण से नहीं, वैसे ही तीर्थंकरों के उपदेश का अनुसरण करने से ही साधारणपुरुष कर्मरोग से मुक्त होते हैं, तीर्थंकरों के नग्नवेश का अनुकरण करने से नहीं।
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