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________________ अ०३/प्र०३ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २३१ इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गायं ममत्वमभिनन्दः। अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि॥ १८॥ यदि हीनसंहननवाले का देहसुखराग संवर और निर्जरा का कारण है, तो राग नियमतः आस्रव-बन्ध का हेत है, यह सिद्ध नहीं होता और अराग की जगह राग संवर-निर्जरा का कारण सिद्ध हो जाता है। इससे जिनेन्द्रदेव का उपदेश ही उलट जाता है। वे वीतरागतीर्थ के उपदेशक न होकर रागतीर्थ के उपदेशक बन जाते हैं। इस विसंगति का प्रसंग आने से सिद्ध है कि सवस्त्र स्थविरकल्प से मोक्ष होने की मान्यता जिनेन्द्रदेव के उपदेश के विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कर्मबन्ध की प्रणाली पर प्रकाश डालते हुए समयसार में कहा है जह णाम कोवि पुरिसो णेहभत्तो दु रेणुबहुलम्मि। ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्थेहि वायामं॥ २३७॥ जो सो दुणेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेसाहि॥ २४०॥ एवं मिच्छादिट्ठी वट्टन्तो बहुविहास चिट्ठासु। रायाइ उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण॥ २४१॥ अनुवाद-"जैसे कोई पुरुष शरीर में तेल लगाकर धूलभरे स्थान में मुद्गर आदि शस्त्रों से व्यायाम करता है, तो उसके शरीर पर जो धूल चिपक जाती है, उसका कारण उसके शरीर पर तेल से उत्पन्न हुआ चिकनापन है, वैसे ही बहुविध प्रवृत्तियों में लिप्त मिथ्यादृष्टि जीव उपयोग में जो रागादि करता है, उसके कारण उसकी आत्मा से कर्मरूपी धूल संश्लिष्ट होती है।" श्वेताम्बराचार्य उमास्वाति ने भी प्रशमरतिप्रकरण में कुन्दकुन्द के इसी कथन को निम्नलिखित कारिका में दुहराया है स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम्। रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवं ॥ ५५॥ इस प्रकार राग कर्मबन्ध का कारण है और उसका अभाव मोक्ष का। यह कर्मसिद्धान्त (जीव के साथ कर्मों के बन्ध और मोक्ष की कार्यकारणव्यवस्था) अत्यन्त वैज्ञानिक है। जैसे भौतिकविज्ञान के नियम निरपवाद होते हैं अर्थात् निर्धारित परिस्थितियों में उनका परिणाम सभी देशों एवं सभी कालों में एक जैसा होता है, वैसे ही कर्मसिद्धान्त भी निरपवाद है। उसके परिणाम भी नियत परिस्थितियों में सदा और सर्वत्र समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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