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________________ २३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३ /प्र०३ भवन्ति, तेषामेव धर्मोपदेश-प्रव्रज्यादानादावधिकारः, न पुनर्जिनकल्पिका अपि, तेषां धर्मोपदेशदानादावनधिकारात्।" (प्रव.परी./ वृत्ति / १/२/१५/ पृ.७९-८०)। "त्रिभिः कारणैर्वस्त्रं धरेत् इति सूत्रेऽपि विहितं प्रतिपादितं यतो यस्मात् , तेनैव प्रकारेण तद्वस्त्रं निरतिशयत्वेन तथाविधधृतिसंहननादिरहितेन साधुनावश्यं धरणीयमिति। कुतः? इत्याह-यतो यस्माद् निरतिशयत्वेन जिनकल्पायोग्यानां साधूनां ह्रीकुत्सा-परीषहलक्षणं वस्त्रधरणकारणं पूर्वाभिहितस्वरूपमवश्यमेव सम्भवति, ततो धरणीयमेव वस्त्रम्।" (हेम. वृत्ति / विशे.भा./ गा. २६०२-३)। इन शास्त्रवचनों से श्वेताम्बरपरम्परा की निम्नलिखित मान्यताएँ सामने आती हैं-१. स्थविरकल्प की प्रवृत्ति जिनकल्प के साथ मोक्षयोग्य काल में भी होती है, क्योंकि उस काल में भी अनेक पुरुष जिनकल्प के योग्य नहीं होते अर्थात् उनमें प्रथमसंहनन और नवपूर्ववेदित्व का अभाव होता है। २.मोक्षयोग्यकाल में स्थविरकल्पिक साधु प्रथमसंहनन और नवपूर्ववेदित्व के अभाव में भी मुक्त हो जाते हैं। उक्त शास्त्रवाक्यों से श्वेताम्बरों की यह मान्यता भी प्रकट होती है कि प्रथमसंहननधारी साधुओं को वस्त्रपात्रादिपरिग्रह त्यागने और परीषहपीड़ा सहने पर मोक्ष होता है तथा हीनसंहननधारी मुनियों को वस्त्रपात्रादि-परिग्रह का उपभोग करने और परीषहपीड़ा से बचकर देहसुख भोगने पर मुक्ति मिलती है। ये मान्यताएँ तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों के प्रतिकूल हैं। उसमें तो प्रथमसंहननधारी के अतिरिक्त अन्यसंहननधारी को मोक्ष के योग्य ही नहीं माना गया है, क्योंकि उसमें मोक्ष के लिए शुक्लध्यान और शुक्लध्यान के लिए प्रथमसंहनन एवं पूर्ववित्त्व अनिवार्य बतलाये गये हैं-"आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः।" (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/३९)। ये दोनों योग्यताएँ स्थविरकल्पिकों में नहीं होतीं। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में प्रथमसंहनन और अन्य संहनन के आधार पर अलग-अलग मोक्षमार्गों का प्रतिपादन नहीं है। जैसे उसमें यह उपदेश नहीं है कि प्रथमसंहननवालों को कर्मों का संवर और निर्जरा करने के लिए परीषहों को सहना चाहिए तथा अन्य संहननवालों को इसी कार्य की सिद्धि के लिए परीषहों से बचना चाहिए। उसमें तो सभी के लिए "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" (९/८), यह एक ही उपदेश है। अर्थात् चाहे कोई प्रथमसंहननधारी हो या अन्यसंहननधारी संवर और निर्जरा के लिए उसे परीषह सहना अनिवार्य है। __परीषहों से बचने की इच्छा देहसुख की इच्छा है (देखिये, इसी प्रकरण का शीर्षक १) और इच्छा राग है। श्वेताम्बरग्रन्थ प्रशमरति-प्रकरण में भी इच्छा को राग का पर्यायवचन कहा गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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