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________________ अ०३/प्र०३ श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २२९ के पाँच लाभ बतलाये गये हैं-१. प्रतिलेखना अल्प होती है, २.लाघव प्रशस्त होता है, ३. साधु विश्वसनीय बनता है, ४. तप अनुज्ञात (जिनानुमत) होता है और ५.विपुल इन्द्रियनिग्रह होता है। वस्तुतः इन कारणों से तीर्थंकर वस्त्र त्याग करते हैं। (देखिये, प्रथम प्रकरण का शीर्षक ७)। १० साधारण पुरुषों के लिए भी वस्त्रपात्रादि मोक्ष में बाधक __ कर्मसिद्धान्त पक्षपातरहित श्वेताम्बरशास्त्रों में यह व्यवस्था बतलायी गयी है कि मोक्षयोग्य काल में जो प्रथमसंहननधारी पुरुष होते हैं, वे अचेल जिनकल्प धारण करने के योग्य होते हैं और जो दुर्बल संहननधारी होने से परीषह सहने में असमर्थ हैं अथवा जिन्हें नग्न रहने में लज्जा आती है अथवा पुरुषांग के विकृत होने से लोकनिन्दा का भय होता है, उनमें केवल स्थविरकल्प के ग्रहण की योग्यता होती है। दोनों कल्प मोक्ष के साधक हैं, तथापि मोक्ष के अयोग्य, किन्तु व्रतधारण के योग्य काल में केवल सचेल स्थविरकल्प ही धारण किया जा सकता है, क्योंकि उस समय सभी पुरुष हीनसंहननधारी होते हैं। इस व्यवस्था का उल्लेख निम्नलिखित उद्धरणों में द्रष्टव्य है __ "जिनकल्पिकस्य तावज्जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतस्त्वसम्पूर्णानि दशपूर्वाणि श्रुतं भवति। प्रथमसंहननो वज्रकुड्यसमानावष्टम्भश्चायं भवति। स्वरूपेण पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु, संहृतस्त्वकर्मभूमिष्वपि भवति। उत्सर्पिण्यां व्रतस्थस्तृतीयचतुर्थारकयोरेव, जन्ममात्रेण तु द्वितीयारकेऽपि, अवसर्पिण्यां तु जन्मना तृतीयचतुर्थारकयोरेव, व्रतस्थस्तु पञ्चमारकेऽपि, संहरणेन तु सर्वस्मिन्नपि काले प्राप्यते।" (अभि.रा.को./ भा.४/पृ. २३८९)। ___ "क्षेत्रद्वारे जन्मतः, सद्भावतश्च स्थविरकल्पिकाः पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु भरतैरावतविदेहपञ्चकलक्षणासु भवन्ति। संहरणतः पञ्चदशानां कर्मभूमीना, त्रिंशतामकर्मभूमीनामन्यतरस्यां भूमौ भवेयुः। अद्धाकालः तमङ्गीकृत्यावसर्पिण्यां जन्मतः, सद्भावतश्च त्रिषु तृतीयचतुर्थपञ्चमारकेषु भवेयुः। --- उत्सर्पिण्यां जन्मतस्त्रिषु द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु आरकेषु सद्भावतस्तु द्वयोस्तृतीय-चतुर्थारकयोर्भवन्ति।" (अभि.रा.को./ भा. ४/ पृ. २३९१)। ___ "मनःपर्यायज्ञानं, परमावधि --- जिनकल्पः --- एते पदार्थाः जम्बूस्वामिनि व्युच्छिन्नाः जम्बूस्वामिनं यावत् प्रवृत्ताः ---। अस्ति च --- स्थविरकल्पः, कीदृशः? तीर्थप्रवृत्तिहेतुः, सर्वेष्वपि तीर्थेषु अच्छिन्नप्रवृत्तिहेतवः स्थविरकल्पिका एव साधवो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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