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२२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०३ पर, विचारणीय प्रश्न यह नहीं है कि तीर्थंकर वस्त्र क्यों ग्रहण नहीं करते? वस्त्र तो वे बाल्यकाल से ग्रहण किये ही रहते हैं। विचारणीय प्रश्न तो यह है कि वे प्रव्रज्या के समय वस्त्रों का त्याग क्यों करते हैं? वस्त्रपात्रादि के अभाव में उन्हें संयमविराधनादि दोष नहीं लगते यह ठीक है, पर वस्त्रपात्रादि के सद्भाव में क्या बाधा उत्पन्न होती है, जिससे वे वस्त्र त्याग कर देते हैं? यद्यपि श्वेताम्बरशास्त्रों में यह कहा गया है कि तीर्थंकरों का शरीर वस्त्रों के समान ही उनके प्रभामण्डल से आच्छादित हो जाता है तथा उन्हें शीतादिपरीषहों की पीड़ा नहीं होती, इसलिए अनावश्यक होने के कारण वे वस्त्रधारण नहीं करते। किन्तु प्रश्न यह है कि जब वे बाल्यकाल से लेकर प्रव्रज्या के पूर्व तक वस्त्रधारण करते हैं और उन्हें लोगों को यह उपदेश देना भी आवश्यक होता है कि मोक्षमार्ग सवस्त्र ही है, जिसके लिए उन्हें देवेन्द्रोपनीत देवदूष्य बायें कन्धे पर डालना पड़ता है, तब वे अपने पूर्वगृहीत स्वाभाविक वस्त्रों का परित्याग क्यों करते हैं? उनके द्वारा तो सवस्त्र मोक्षमार्ग का उपदेश और भी स्वाभाविक एवं प्रभावशाली बन सकता है। इस प्रश्न का समाधान न तो जिनभद्रगणी जी ने किया है, न किसी श्वेताम्बर-ग्रन्थ में उपलब्ध हुआ है।
तीर्थंकर तो उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं, चार ज्ञानों के धारी होते हैं, उनका कोई कार्य अयुक्तिसंगत या निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। इसलिए यही सिद्ध होता है कि वस्त्रपात्रादि-परिग्रह संयम या मोक्ष में बाधक है, इसीलिए तीर्थंकर उसका त्याग करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में भी कहा है
ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ २३॥ अनुवाद-"जिनशासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी पुरुष सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त नहीं होता, भले ही वह तीर्थंकर हो। नग्नत्व ही मोक्ष का मार्ग है, शेष सब संसार के मार्ग हैं।"
वस्त्रग्रहण मोक्ष में बाधक क्यों है? उसका उत्तर आचारांग में दिया गया है। उसमें बतलाया गया है कि वस्त्रादि के परिग्रह से अपध्यान होता है, परीषहजय संभव नहीं होता और तप का अभ्यास असम्भव हो जाता है। तथा स्थानांगसूत्र में वस्त्रत्याग
७४. "जिनेन्द्रा अपि गृहस्थावस्थायां बालभावे तदतिक्रमे च यथोचितं वस्त्रालङ्कारविभूषिता एव
भवन्ति, प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यवसरे तु देवेन्द्रोपनीतदेवदूष्यवस्त्रं सवस्त्रपात्रो धर्मो मया प्रज्ञापनीय इति वामस्कन्धोपरि धरन्ति।--- किं च जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति।--- ते हि भगवन्तो --- स्वप्रभामण्डलाच्छादितदेहा:--- जितपरिषहा---।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति / १/२/३१ / पृ.९२-९३।।
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