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अ०३ / प्र०३
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २२७ करने से मुनि परीषहसहन का अवसर खो देता है, फलस्वरूप संवर के मार्ग से च्युत हो जाता है और कर्मों की निर्जरा नहीं कर पाता। इस तरह वस्त्रपरिभोग निर्जराविरोधी है और निर्जराविरोधी होना संयमविरोधी होने का प्रमाण है।
बारह तपों में कायक्लेश को बाह्य तप बतलाया गया है, जो निर्जरा का कारण है। पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं-"ठंड, गरमी या विविध आसनादि द्वारा शरीर को कष्ट देना कायक्लेश कहलाता है।" (त.सू./ वि.स./९/१९-२०)। ठंड, गरमी के द्वारा शरीर को कष्ट देना निर्वस्त्र रहने पर ही संभव है, जैसा कि आचारांग में कहा गया है। वस्त्रधारण करने से कायक्लेश नामक तप असंभव हो जाता है, जिससे साधक निर्जरा से वंचित हो जाता है। इस तरह भी वस्त्रपरिभोग निर्जराविरोधी अत एव संयमविरोधी है।
___ दशधर्मों में संयमधर्म का उपदेश है। उसका पालन पाँच इन्द्रियों के निग्रह से होता है। स्पर्शन इन्द्रिय का निग्रह तब होता है, जब शीतादिजन्य पीड़ा हो रही हो
और वस्त्रादि का परिभोग न कर उसे धैर्यपूर्वक सहा जाय। स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है कि वस्त्रत्याग से विपुल इन्द्रियनिग्रह होता है।७३ वस्त्रपरिभोग करने से स्पर्शन इन्द्रिय का निग्रह नहीं हो पाता, प्रत्युत उसके विषय का सेवन हो जाता है, जिससे कर्मों का संवर न होकर आस्रव-बन्ध होता है। इस रीति से भी वस्त्रपरिभोग संयमविरोधी है।
मोक्षबाधक होने से ही तीर्थंकरों द्वारा वस्त्रत्याग बोटिककथा में आर्यकृष्ण के द्वारा वस्त्रपात्रादि को संयम का उपकारी (साधक) सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। यहाँ शिवभूति की ओर से प्रश्न उठाया गया है कि यदि वस्त्रपात्रादि संयम के उपकारी हैं, तो तीर्थंकरों ने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? इसके उत्तर में गुरु आर्यकृष्ण कहते हैं
"तीर्थंकर अनुपम धृति और अनुपम संहनन के धारी, छद्मावस्था में चतुर्सानी, अतिशयसत्त्वसम्पन्न, अच्छिद्रपाणि और जितसमस्तपरीषह होते हैं, अतः वस्त्रपात्ररहित होने पर भी उन्हें संयमविराधनादि दोष नहीं लगते। फलस्वरूप उनके लिए वस्त्रपात्रादि संयम के साधक नहीं है। इस कारण वे वस्त्रपात्रादि ग्रहण नहीं करते।" (विशे.भा./ गा.२५८१-८३)।
७३. "पंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्थे भवइ। तं जहा-अप्पापडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे
वेसासिए, तवे अणुण्णाए , विउले इंदिय-निग्गहे।" स्थानांगसूत्र / ५/३/३४७ ।
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