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२२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ० ३ / प्र० ३
किन्तु यह तर्क समीचीन नहीं है। क्योंकि, प्रथम तो शरीर सभी के लिए भयकषाय आदि का कारण नहीं होता। जिन्हें उसमें मूर्च्छा होती है, उन्हीं के लिए होता है । मूर्च्छारहित मुनि न तो शरीर से राग करता है, न सिंहादि हिंस्रपशुओं से भयभीत होता है, न ही उसे शरीर के संरक्षण की चिन्ता होती है। किन्तु वस्त्रादि तो मूर्च्छा केही कारण हैं, अतः उनमें सभी को मूर्च्छा होती है। फलस्वरूप वे सभी के लिए भयकषायादि के हेतु हैं। दूसरे, शरीर शरीरनामकर्म और आयुकर्म के उदय के कारण जन्म से ही आत्मा के साथ संश्लिष्ट होता है, किन्तु वस्त्रपात्रादि जन्म से आत्मा के साथ संश्लिष्ट नहीं होते। इसलिए आत्मा न तो मूर्च्छा के कारण शरीर को ग्रहण करता है, न ही मूर्च्छा का अभाव होने पर उसे त्यागने में समर्थ होता है, जबकि वस्त्रपात्रादि का ग्रहण मूर्च्छा के ही कारण करता है, और मूर्च्छा का अभाव होने पर उनका परित्याग कर देता है। तीसरे, जो वस्त्रपात्रादि कषाय, भय और रौद्रध्यान के हेतु होने से संसार के कारण हैं, उन्हें मोक्ष का साधन कहना स्वविरोधी कथन है । निष्कर्षतः वस्त्रपात्रादि संयम के साधक न होकर बाधक ही हैं, अतः उनका ग्रहण परिग्रह ही है, अपरिग्रह नहीं ।
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वस्त्रपरिभोग निर्जराविरोधी
तत्त्वार्थसूत्र में, जो श्वेताम्बरों को भी मान्य है, कहा गया है कि संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए परीषहों को समभाव से सहना चाहिए—“मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः " (९/८) । और आचारांग का कथन है कि नग्न रहने पर ही भिक्षु परीषहों को भलीभाँति सहन करता है और कर्मों के भार से मुक्त हो जाता है। (१/७/७/२२१) । इससे स्पष्ट है कि वस्त्रधारण
अह ते न मोक्खसाहणमईए गंथो वत्थाइ मोक्खसाहणमईए सुद्धं जइ भयहेऊ गंथो तो नाणाईण भयमिइ ताइं गंथो देहस्स य अह मोक्खसाहणमईए न भयहेऊ वि वत्थाइ मोक्खसाहणमईए सुद्धं सारक्खणाणुबंधो रोद्दज्झाणं ति ते मई तुल्लमियं देहाइसु पसत्थमिह तं जे जत्तिया पगारा लोए भयहेअवो ते चेव य विरयाणं पसत्थभावाण
कहं
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कसायहेऊ वि ।
कहं गंथो ? ॥ २५६१ ॥ तदुवघाईहिं ।
सावयाईहिं ॥ २५६८॥
ताणि ते गंथो ।
गंथो ? ॥ २५६९॥
हुज्जा ।
तहेहावि ॥ २५७० ॥
अविरयाणं ।
मोक्खाय ॥ २५७१ ॥ विशेषावश्यकभाष्य ।
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