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अ० ३ / प्र० ३
श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २२५
कि तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥ ३/२१॥
तध
अनुवाद - " बाह्यपरिग्रह के रहने पर मुनि मूर्च्छा, आरंभ और असंयम से कैसे बच सकता है? और जो परद्रव्य में आसक्त है उसके लिए आत्मा की साधना कैसे संभव है?"
अतः यह मानकर चलना कि वस्त्रपात्रादि संयम के साधन हैं और संयम के साधनों में मूर्च्छा नहीं होती, इसलिए वे ग्रन्थ नहीं हैं, अमनोवैज्ञानिक और अप्रामाणिक है। बोटिक शिवभूति के कथानक में बतलाया गया है कि साधुदीक्षा लेने के बाद उसे राजा ने एक रत्नकम्बल भेंट किया था । उसमें उसे मूर्च्छा (राग) हो गई थी। इसलिए गुरु ने उसे फाड़कर पादप्रौञ्छन बना दिये थे । यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि परद्रव्य का संग मूर्च्छा की उत्पत्ति का निमित्त बनता है। इसी कारण तो मुनियों के लिए स्त्रियों के साथ एकान्त में रहना वर्जित किया गया है । अतः परद्रव्य का संग जितना कम होगा, मूर्च्छत्पत्ति के अवसर उतने ही कम रहेंगे। इसीलिए परीषहों को सहने का उपदेश दिया गया है, ताकि परीषहजनित कष्टों से बचने के लिए परद्रव्य की इच्छा उत्पन्न न हो और उसका परिग्रह न करना पड़े।
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वस्त्रपात्रादिसंग भय - कषायादि का हेतु
इसमें सन्देह नहीं कि वस्त्रपात्रादि के संग से उनमें राग उत्पन्न होता है, चोरों से भय पैदा होता है और उनकी रक्षा के लिए संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान की उत्पत्ति होती है। इसलिए मन:स्थिति के आकुलतामय बने रहने से स्वाध्याय और ध्यान संभव नहीं होते। इस तरह वस्त्रपात्रादि संयम में साधक न होकर बाधक ही होते हैं । वस्त्रादि के भय - कषायादि के हेतु होने की बात आर्यकृष्ण और जिनभद्रगणी भी स्वीकार करते हैं। फिर भी उन्होंने वस्त्रादि के संग को अपरिग्रह सिद्ध करने की चेष्टा की है। वे 'विशेषावश्यकभाष्य' में कहते हैं- " भयकषाय आदि तो शरीर के निमित्त से भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु वह मोक्षसाधक होता है, अतः भयकषायादि का हेतु होते हुए भी परिग्रह नहीं है। इसी प्रकारं वस्त्रपात्रादि भी मोक्षसाधक होते हैं, इसलिए भयादि के हेतु होने पर भी वे परिग्रह नहीं हैं। "७२
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७२. गुरुणाऽभिहिओ जइ जं कसायहेऊ परिग्गहो सो ते ।
तो सो देहो च्चिय
ते
कसायउप्पत्तिहेउ त्ति ॥२५५८ ॥ शेष अगले पृष्ठ पर...
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