________________
२२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०३ का उपभोग किये जाने से यह भी सिद्ध होता है कि वह आहार-ओषधि का भी सेवन प्राणधारण के साथ-साथ परीषहपीड़ा-निवारण के लिए करता है। अतः उसके लिए आहार-ओषधि भी परीषहपीड़ा-निवारक अर्थात् देहसुख-साधक हो जाते हैं, इसलिए देह में उसकी मूर्छा सिद्ध होने से देह भी उसके लिए परिग्रह बन जाती है। सार यह कि जो मुनि परीषहपीड़ा-निवारक वस्त्रादि पदार्थों का सेवन करते हैं, उनका वस्त्रादि में मूर्छा का भाव नियम से सूचित होता है, भले ही इनका सेवन न करनेवालों में मूर्छा का अभाव नियम से सूचित न हो।
इस तरह हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि दशवैकालिकसूत्र का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि "साधु संयम और लज्जा के लिए जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रौंछन आदि रखता है वह परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा होना परिग्रह हैं।" इस कथन के युक्तिसंगत न होने का कारण यह है कि ये सब वस्तुएँ परीषहपीड़ानिवारक हैं, अतः इनका पास में रखा जाना नियम से मूर्छा के सद्भाव का सूचक है, ये मूर्छा के फल हैं। जब इनका ग्रहण ही मूर्छा का फल है, तब इनके होने पर मूर्छा न हो, यह असंभव है। अतः वस्त्रपात्रादि का रखना-मात्र परिग्रह है।
६
वस्त्रपात्रादि का संग मूर्छा का हेतु यतः वस्त्रपात्रादि का परिग्रह मूर्छा का फल है, अतः मूर्छा का जनक है। वस्त्रपात्रादिपरिग्रह से उसके अर्जन, संस्करण और संरक्षण की चिन्ता उत्पन्न होती है। यह मूर्छा का लक्षण है। यह तो श्वेताम्बरीय ग्रन्थ पिण्डनियुक्ति में भी कहा गया है कि वस्त्रों को धोकर सुखाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें चोर चुराकर न ले जायँ। और विशेषावश्यकभाष्य का भी कथन है कि वस्त्रादि की चोरी का भय होने से संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान होता है, यद्यपि वहाँ उसे मोक्षसाधनभूत-वस्त्रादि निमित्तक मानकर प्रशस्त मान लिया गया है।
भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने भी कहा है-"परिग्रह छह प्रकार के जीवों की पीड़ा का मूल तथा मूर्छा का निमित्त है, इसलिए समस्त परिग्रह का त्याग पाँचवाँ अपरिग्रह महाव्रत है।"७१ और आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में विज्ञापित करते हैं७०. "यद्येवम् , तर्हि तथा तेनागमप्रसिद्धेन यतनाप्रकारेणेहापि वस्त्रादौ संरक्षणानुबन्धविधानं कथं
न प्रशस्तम्।' हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५७०-७१। ७१. "परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवति इति
पञ्चमं व्रतम्।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३३१ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org