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________________ अ० ३ / प्र० ३ श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २२३ का त्याग मूर्च्छा का त्याग है । भगवती आराधनाकार ने अपरिमित इच्छा से विरत होने को अपरिग्रह - अणुव्रत कहा है। ६७ इससे सिद्ध होता है कि परिमित इच्छा भी विरत होना अर्थात् इच्छा का पूर्णत्याग अपरिग्रहमहाव्रत है। इन लक्षणों से मूर्च्छा के एकदेशत्याग और पूर्णत्याग का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् मूर्च्छा और इच्छा पर्यायवाची हैं। कसायपाहुड ६८ और समवायांगसुत ६९ ( श्वेताम्बर - आगम) में भी इन दोनों को एकार्थक कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी 'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स.सा./२१०) इस उक्ति द्वारा मूर्च्छा, इच्छा और परिग्रह को समानार्थी निरूपित किया है, जिसे व्याख्याकार अमृतचन्द्रसूरि ने ‘इच्छा परिग्रहः' (आ.ख्या/ स.सा. २१०) कहकर स्पष्ट किया है। चूँकि मूर्च्छा, इच्छा और परिग्रह पर्यायवाची हैं, इसलिए इच्छा का एकदेशत्याग मूर्च्छा या परिग्रह का एकदेशत्याग है और इच्छा का सर्वथा त्याग मूर्च्छा या परिग्रह का सर्वथा त्याग है। इच्छा का एकदेश त्याग होने पर बाह्य वस्तुओं का एकदेश त्याग स्वतः फलित होता है और इच्छा का सर्वथा त्याग होने पर क्षेत्रादि बाह्य वस्तुओं का और जो परीषहपीड़ा से बचने के लिए आवश्यक होते हैं, उन समस्त पदार्थों का अपनेआप त्याग होना अनिवार्य है । अतः यद्यपि बाह्य वस्तुओं का त्याग मूर्च्छा के अभाव का अनिवार्य लक्षण नहीं है, तथापि उनका अत्याग या ग्रहण मूर्च्छा के सद्भाव का अनिवार्य लक्षण अवश्य है। अब यह विचारणीय है कि गृहत्यागी मुनि के पास किन पदार्थों के सद्भाव से मूर्च्छा का सद्भाव सूचित होता है? इसकी कसौटी एक ही है, और वह है परीषहपीड़ा - निवारक वस्तुओं का सद्भाव । परीषहपीड़ा निवारक वस्तुओं का निर्धारण करने पर ज्ञात होता है कि शरीर परीषहपीड़ा निवारक वस्तुओं में शामिल नहीं है, क्योंकि वह तो परीषहपीड़ा का आधार है । परीषहपीड़ा उसके ही माध्यम से होती है। आहार और औषधि भी उन वस्तुओं में से नहीं हैं, क्योंकि ये प्राणधारण के भी साधन हैं, अतः जब मुनि इन्हें परीषहपीड़ा - निवारण के लिए ग्रहण न कर प्राणधारण के लिए ग्रहण करता है, तब ये परीषहपीड़ा निवारक नहीं होते । पिच्छी और कमण्डलु स्पष्टतः परीषहपीड़ा - निवारक नहीं है, अपितु संयम और शुद्धि के साधन हैं। इनके अतिरिक्त जितनी भी वस्त्रपात्रादि वस्तुएँ हैं वे शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषहों की पीड़ा से बचने के साधन हैं, प्राणधारण के नहीं। इसलिए मुनि के पास इनका सद्भाव होने पर मूर्च्छा का सद्भाव सूचित होता है। किसी मुनि के द्वारा इन पदार्थों ६७. पाणवध-मुसावादादत्तादाण-परदारगमणेहिं । अपरिमिदिच्छादो वि अ अणुव्वयाइं विरमणाई ॥ २०७४ ॥ भगवती आराधना । ६८. “इच्छा मुच्छा य गिद्धी य।" कसायपाहुड / माथा ८९ । ६९. “लोभे इच्छा मुच्छा।" समवायांग / समवाय ५२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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