________________
२२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०३/प्र०३ भी कोई कह सकता है कि मैं मूर्छा का पूर्ण त्यागी हूँ। और रंचमात्र भी पर द्रव्य का अर्जन-रक्षण आदि न करने वाले दिगम्बरजैन मुनि के भी विषय में कहा जा सकता है कि वह मूर्छा का किंचित् भी त्यागी नहीं है।
मूर्छा के एकदेशत्याग और पूर्णत्याग का कोई बाह्य लक्षण निर्धारित हुए बिना अपरिग्रहाणुव्रत और अपरिग्रहमहाव्रत का उपदेश भी नहीं दिया जा सकता। अणुव्रतों और महाव्रतों का उपदेश बाह्य द्रव्य के आधार पर ही दिया गया है। जैसे त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा मात्र के त्याग को अहिंसाणुव्रत कहा गया है, और त्रस तथा स्थावर जीवों की संकल्पी, आरंभी, उद्योगी और विरोधी, चारों प्रकार की हिंसा के त्याग को अहिंसा महाव्रत नाम दिया गया है। लोकप्रसिद्ध असत्य वचन के त्याग को सत्याणुव्रत और लोक तथा शास्त्र, उभयप्रसिद्ध असत्यवचन के त्याग को सत्यमहाव्रत कहा गया है। धन की परिभाषा में आनेवाली दसरे की वस्त को बिना दिये लेने का त्याग अचौर्याणुव्रत है और धन की परिभाषा में न आनेवाली वस्तु के भी अदत्तादान का त्याग अचौर्यमहाव्रत बतलाया गया है। परस्त्री के त्याग को 'ब्रह्मचर्याणुव्रत' संज्ञा दी गई है और स्वस्त्री-परस्त्री दोनों के त्याग को 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' संज्ञा। इसी प्रकार क्षेत्र, वास्तु , हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दास-दासी, कुप्य, भाण्ड आदि वस्तुओं के एकदेशत्याग या परिमित करने को अपरिग्रहाणुव्रत कहा गया है और सम्पूर्ण त्याग को अपरिग्रहमहाव्रत। तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरमान्य और श्वेताम्बरमान्य दोनों पाठों में क्षेत्र, वास्तु आदि उपर्युक्त वस्तुओं के प्रमाण के उल्लंघन को अपरिग्रह-अणुव्रत का अतिचार बतलाया गया है।६५ इससे स्पष्ट है कि आगम में क्षेत्रादिबाह्य वस्तुओं के एकदेशत्याग को व्यवहारनय से मूर्छा का एकदेशत्याग माना गया है, क्योंकि क्षेत्रादि बाह्य वस्तुओं के एकदेशत्याग से तत्सम्बन्धी अर्जन, रक्षण और संस्काररूप मूर्छा का अभाव हो जाता है। पूज्यपाद स्वामी ने 'मूर्छा परिग्रहः' (त.सू./७/१७) इस सूत्र की व्याख्या करते हुए बाह्य वस्तुओं के अर्जन, संरक्षण आदि प्रवृत्तियों को मूर्छा कहा है।६६ इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उक्त क्षेत्रादि बाह्य पदार्थों का सर्वथा त्याग, व्यवहारनय से मूर्छा का सर्वथा त्याग माना गया है, क्योंकि उनके सर्वथा त्याग से तद्विषयक अर्जन, रक्षण और संस्काररूप मूर्छा का पूर्णतः अभाव हो जाता है।
किन्तु बाह्य पदार्थों का त्याग निश्चयनय से मूर्छा का त्याग नहीं है, क्योंकि बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने पर भी उनकी इच्छा विद्यमान रह सकती है। इसलिए आगम में इच्छाविरमण को अपरिग्रह कहा गया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि इच्छा ६५. "क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः।" तत्त्वार्थसूत्र/वि.स./७/२९ । ६६. "का मूर्छा? बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणां च रागादीना
मुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणाव्यापृतिर्मूर्छा।" सर्वार्थसिद्धि/७/१७ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org