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अ०३/प्र०३
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / २२१ मूर्छा के फल। किन्तु जब देह और आहार की इच्छा संयम की साधना के लिए की जाती है, तब न तो वह इच्छा मूर्छा होती है, न देह का संग और आहारग्रहण मूर्छा के फल। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि आहार प्राणधारण करने का साधन है, किन्तु वस्त्रपात्रादि प्राणधारण के साधन नहीं हैं। इसलिए दोनों में साम्य न होने से आहारग्रहण के औचित्य से वस्त्रपात्रादिग्रहण का औचित्य नहीं ठहराया जा सकता। यदि आहार प्राणधारण का साधन न होता, तो मात्र क्षुधातृषाजन्य पीड़ा के निवारण अर्थात् देहसुख का साधन होने से वह भी वर्जनीय होता, क्योंकि मोक्षसुख के लिए देहसुख का त्याग और कायक्लेश का अंगीकार अनिवार्य बतलाया गया है।
कामविकार-निगूहन के लिए भी वस्त्र की इच्छा करना मूर्छा है, क्योंकि यह इच्छा भी नाग्न्यपरीषहजय और स्त्रीपरीषहजय की अक्षमता से उत्पन्न होती है। तथा लिंगविकृतिजन्य जुगुप्सा के निवारण के लिए वस्त्र की इच्छा अनावश्यक है, क्योंकि ऐसा पुरुष दैगम्बरी दीक्षा का पात्र ही नहीं है। ___यदि कोई पुरुष इन परीषहों को सहने में समर्थ नहीं है, तो वह कर्मों की निर्जरा का भी अधिकारी नहीं है, क्योंकि आगम में निर्जरा के लिए परीषह-सहन अनिवार्य बतलाया गया है-'मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः'(त.सू./९/८)। परीषहजय में असमर्थ पुरुष को श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का अवलम्बन कर परीषहजय का अभ्यास करना चाहिए। परीषहजय का सामर्थ्य अर्जित हो जाने पर ही दैगम्बरीदीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यदि यह भी संभव न हो, तो सामान्य-श्रावकधर्म के अभ्यास द्वारा परम्परया परीषहजय-योग्य शक्ति के विकास की साधना करनी चाहिए, किन्तु दैगम्बरीदीक्षा ग्रहण करने की अनधिकृत चेष्टा कदापि करणीय नहीं है।
परीषह-पीड़ानिवारक वस्तुओं का उपभोग मूर्छा का लक्षण
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि वस्त्रपात्रादि रखना परिग्रह नहीं है, अपितु उनमें मूर्छा होना परिग्रह है। किन्तु उनमें मूर्छा है या नहीं इसकी कसौटी क्या है? मूर्छा यदि बाह्य प्रवृत्ति में अभिव्यक्त न होती हो, तो मूर्छात्यागरूप अपरिग्रह के अणुव्रत और महाव्रतरूप भेद करना संभव नहीं है।
यदि का बाह्य वस्तुओं के संग्रह से सम्बन्ध न माना जाय, तो मूर्छा के एक-देशत्याग और पूर्णत्याग के भेद का निर्धारण किस आधार पर होगा? यह निर्णय कैसे होगा कि अमुक व्यक्ति ने मूर्छा के एकदेशत्याग का व्रत ग्रहण किया है और अमुक ने पूर्णत्याग का व्रत। यदि बाह्यपरिग्रह के त्याग की इसमें बिलकुल भी अपेक्षा न हो, तो अपरिमित धनधान्य का अर्जन, संरक्षण और संस्कार करते हुए
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